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युगों युगों के हम प्यासे कैसे अपनी प्यास बुझ

युगों  युगों  के  हम  प्यासे कैसे  अपनी  प्यास बुझाएं।

सरिता तिलमिल उलझ गई है
धाराओं  ने  ऐसे  प्रश्न  उछाले ।
हम संकोचों में ठहरे है  कबसे,
बाधाओं का हल कौन निकाले।

फिर  वीराने  बैठे  हैं देखो  गंगाजल  की  आश लगाए।

शांति  द्वार  पर खड़ा हुआ  है
हाहाकारों का  उठता प्रवलन।
सीतलता परोश रही है पावक
ज्वलन उड़ेल रहा  है ये चंदन।

भाव  विलोमित  होकर  ही  रस्ता  कोई कास दिखाए।

दृष्टियों  में  हमने  रक्खे  जबसे
कुछ कोमल कुछ सपन सुहाने।
हर रोज  खड़े  हो  जाते  अपने
प्रिय ही बैरी बनकर सीना ताने।

पांडव  बनकर भेजे  जाते दुर्योधन  का वनवास उठाए।

हम  प्रवर्तक   है  अमरत्व  के
फिर भी हमें  मात का भय है।
फिर से अपने  मन  भावो का
सिया हरण होगा मानों तय है ।

फिर युग कि चौखट पर रावण बैठेगा अट्टहास लगाए।

युगों  युगों  के  हम प्यासे  कैसे  अपनी  प्यास बुझाएं।

ज्ञानेन्द्र मिश्र युगों युगों के हम प्यासे
युगों  युगों  के  हम  प्यासे कैसे  अपनी  प्यास बुझाएं।

सरिता तिलमिल उलझ गई है
धाराओं  ने  ऐसे  प्रश्न  उछाले ।
हम संकोचों में ठहरे है  कबसे,
बाधाओं का हल कौन निकाले।

फिर  वीराने  बैठे  हैं देखो  गंगाजल  की  आश लगाए।

शांति  द्वार  पर खड़ा हुआ  है
हाहाकारों का  उठता प्रवलन।
सीतलता परोश रही है पावक
ज्वलन उड़ेल रहा  है ये चंदन।

भाव  विलोमित  होकर  ही  रस्ता  कोई कास दिखाए।

दृष्टियों  में  हमने  रक्खे  जबसे
कुछ कोमल कुछ सपन सुहाने।
हर रोज  खड़े  हो  जाते  अपने
प्रिय ही बैरी बनकर सीना ताने।

पांडव  बनकर भेजे  जाते दुर्योधन  का वनवास उठाए।

हम  प्रवर्तक   है  अमरत्व  के
फिर भी हमें  मात का भय है।
फिर से अपने  मन  भावो का
सिया हरण होगा मानों तय है ।

फिर युग कि चौखट पर रावण बैठेगा अट्टहास लगाए।

युगों  युगों  के  हम प्यासे  कैसे  अपनी  प्यास बुझाएं।

ज्ञानेन्द्र मिश्र युगों युगों के हम प्यासे

युगों युगों के हम प्यासे