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मेरी प्यासी कलम।। कलम घूमती प्यासी थी, दवात भरी र

मेरी प्यासी कलम।।

कलम घूमती प्यासी थी, दवात भरी रोशनाई थी।
बिन माचिस बिन बारूद के इसने आग लगाई थी।

कौन जला था, कौन बचा था,
कौन तटस्थ मूक-द्रष्टा था।
किस मुख बदली, किस मुख बारिश,
कौन बैठ पार्श्व गरजता था।
शोर जो कानो तक ना पहुंचा,
चीर हृदय वो जाता था।
लील रहा जो सूर्य था मुख में,
वो दानव या बिधाता था।
उन्मुक्त कलम लिख पाती कैसे,
मोहपाश ने जकड़ा था।
विकर्ण बना था मैं रण में,
अंतर्मन चलता झगड़ा था।
किसने किया था नंगा मुझको किसने लाज बचाई थी।
बिन माचिस बिन बारूद के इसने आग लगाई थी।

बेधड़क कलम तब चलती थी,
जब तक जग से अनजाना था।
वो बचपन का अल्हड़पन,
जब तक ना हुआ सयाना था।
आज जो दुनिया देखी है,
कलम कांपती शब्दों से।
वो इसकी क्या सुन लेंगे,
जो अनभिज्ञ रहे प्रारबधों से।
खुली आंख जो सोया है,
उसको क्या घड़ी जगाएगी।
जो बदली गरजती विचर रही,
कब बूंदों की झड़ी लगाएगी।
तम की बदली घनघोर रही, कब रौशनी छाई थी।
बिन माचिस बिन बारूद के इसने आग लगाई थी।

उनकी कहानी कौन लिखे,
जो शिथिल मौन से दिखते हैं।
प्रत्यक्ष परोक्ष में भेद नहीं,
जो निमित गौण से दिखते हैं।
किन शब्दों का चयन करूँ,
कि कलम भी किसपे दम्भ भरे।
किस यज्ञ-जोत की करूँ अर्चना,
जो रौशन जग अविलम्ब करे।
किस माथे जा तिलक करूँ,
जा किस भुज मैं प्राण भरूँ।
किस विधा में कलम चले ये,
किस विधि लेखन-त्राण करूँ।
दिनकर मुझको मिला नहीं जिसने अलख जगाई थी।
बिन माचिस बिन बारूद के इसने आग लगाई थी।

©रजनीश "स्वछंद" मेरी प्यासी कलम।।

कलम घूमती प्यासी थी, दवात भरी रोशनाई थी।
बिन माचिस बिन बारूद के इसने आग लगाई थी।

कौन जला था, कौन बचा था,
कौन तटस्थ मूक-द्रष्टा था।
किस मुख बदली, किस मुख बारिश,
मेरी प्यासी कलम।।

कलम घूमती प्यासी थी, दवात भरी रोशनाई थी।
बिन माचिस बिन बारूद के इसने आग लगाई थी।

कौन जला था, कौन बचा था,
कौन तटस्थ मूक-द्रष्टा था।
किस मुख बदली, किस मुख बारिश,
कौन बैठ पार्श्व गरजता था।
शोर जो कानो तक ना पहुंचा,
चीर हृदय वो जाता था।
लील रहा जो सूर्य था मुख में,
वो दानव या बिधाता था।
उन्मुक्त कलम लिख पाती कैसे,
मोहपाश ने जकड़ा था।
विकर्ण बना था मैं रण में,
अंतर्मन चलता झगड़ा था।
किसने किया था नंगा मुझको किसने लाज बचाई थी।
बिन माचिस बिन बारूद के इसने आग लगाई थी।

बेधड़क कलम तब चलती थी,
जब तक जग से अनजाना था।
वो बचपन का अल्हड़पन,
जब तक ना हुआ सयाना था।
आज जो दुनिया देखी है,
कलम कांपती शब्दों से।
वो इसकी क्या सुन लेंगे,
जो अनभिज्ञ रहे प्रारबधों से।
खुली आंख जो सोया है,
उसको क्या घड़ी जगाएगी।
जो बदली गरजती विचर रही,
कब बूंदों की झड़ी लगाएगी।
तम की बदली घनघोर रही, कब रौशनी छाई थी।
बिन माचिस बिन बारूद के इसने आग लगाई थी।

उनकी कहानी कौन लिखे,
जो शिथिल मौन से दिखते हैं।
प्रत्यक्ष परोक्ष में भेद नहीं,
जो निमित गौण से दिखते हैं।
किन शब्दों का चयन करूँ,
कि कलम भी किसपे दम्भ भरे।
किस यज्ञ-जोत की करूँ अर्चना,
जो रौशन जग अविलम्ब करे।
किस माथे जा तिलक करूँ,
जा किस भुज मैं प्राण भरूँ।
किस विधा में कलम चले ये,
किस विधि लेखन-त्राण करूँ।
दिनकर मुझको मिला नहीं जिसने अलख जगाई थी।
बिन माचिस बिन बारूद के इसने आग लगाई थी।

©रजनीश "स्वछंद" मेरी प्यासी कलम।।

कलम घूमती प्यासी थी, दवात भरी रोशनाई थी।
बिन माचिस बिन बारूद के इसने आग लगाई थी।

कौन जला था, कौन बचा था,
कौन तटस्थ मूक-द्रष्टा था।
किस मुख बदली, किस मुख बारिश,

मेरी प्यासी कलम।। कलम घूमती प्यासी थी, दवात भरी रोशनाई थी। बिन माचिस बिन बारूद के इसने आग लगाई थी। कौन जला था, कौन बचा था, कौन तटस्थ मूक-द्रष्टा था। किस मुख बदली, किस मुख बारिश, #Poetry #kavita