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कला ------ बहते आंसुओं को दरकिनार कर सब्र के साथ आ

कला
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बहते आंसुओं को दरकिनार कर सब्र के साथ आगे बढ़ जाने की कला हर किसी को नहीं आती वाक़िफ-ए-तकलीफ़ से गुज़र क़ाबिल-ए-तारीफ़ से आगे निकल जाने की कला हर किसी को नहीं आती

बंजर ज़मीं से हो कर लहलहाते खेतों बीच घरौंदा बनाने से ऊपर उठ जाने की कला हर किसी को नहीं आती

मकां और मुक़ाम के सफ़र से हो कर किसी के दिल में पनाह पाने और रूह का सुकूं हो जाने की कला हर किसी को नहीं आती

बेइमानों की बस्ती से हो कर ईमानदारों की महफ़िल से आगे बढ़ जाने की कला हर किसी को

नहीं आती

गरीबी से गुज़र अमीरों से आगे निकल जाने की कला हर किसी को नहीं आती

जज़्बात की गिरफ्त से निकल जज़्बे को मिसाल बनाने की कला हर किसी को नहीं आती कल के सपनों को पिछे छोड़ अपने आज के आधार को आकार और धार देने की कला हर किसी को नहीं आती

कविः मनीष राज

©Manish Raaj
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