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धुंधली सी चादर हैं देखों, परत चढा रखें हजार मनुष्य

धुंधली सी चादर हैं देखों, परत चढा रखें हजार
मनुष्य की महरूम जिदंगी पर,
लोभ का खुल चुका बजार।
कईयो चहरे लगाये फिर रहे,
ऐंठे खड़े यह नराचर।
हलाहल पी कुंठा-पक्षपात का,
समझते धन को पियूष भंडार।
ढोंग पाहुंच चुका शिखर पर
कि अब आँखें भी देतीं हैं झूठा बयान।
रिश्तों कि न कोई कीमत रह गई,
बिक गयी वह भी कौडियों के दाम,
क्या कलयुग यही कहलाएगा?
जहाँ अपना ही अपने को खाएगा,
अब कल्कि भी क्या ही बचाएगा यहाँ तो,
मानवता को मानव ही नष्ट कर जाएगा। धुंधली सी चादर हैं देखों, परत चढा रखें हजार
मनुष्य की महरूम जिदंगी पर,
लोभ का खुल चुका बजार।
कईयो चहरे लगाये फिर रहे,
ऐंठे खड़े यह नराचर।
हलाहल पी कुंठा-पक्षपात का,
समझते धन को पियूष भंडार।
ढोंग पाहुंच चुका शिखर पर
धुंधली सी चादर हैं देखों, परत चढा रखें हजार
मनुष्य की महरूम जिदंगी पर,
लोभ का खुल चुका बजार।
कईयो चहरे लगाये फिर रहे,
ऐंठे खड़े यह नराचर।
हलाहल पी कुंठा-पक्षपात का,
समझते धन को पियूष भंडार।
ढोंग पाहुंच चुका शिखर पर
कि अब आँखें भी देतीं हैं झूठा बयान।
रिश्तों कि न कोई कीमत रह गई,
बिक गयी वह भी कौडियों के दाम,
क्या कलयुग यही कहलाएगा?
जहाँ अपना ही अपने को खाएगा,
अब कल्कि भी क्या ही बचाएगा यहाँ तो,
मानवता को मानव ही नष्ट कर जाएगा। धुंधली सी चादर हैं देखों, परत चढा रखें हजार
मनुष्य की महरूम जिदंगी पर,
लोभ का खुल चुका बजार।
कईयो चहरे लगाये फिर रहे,
ऐंठे खड़े यह नराचर।
हलाहल पी कुंठा-पक्षपात का,
समझते धन को पियूष भंडार।
ढोंग पाहुंच चुका शिखर पर