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सुबह की गुनगुनी धूप कहाँ होती है औरत के हिस्से मे

सुबह की गुनगुनी  धूप कहाँ होती है
औरत के हिस्से में,
उसे समेटना होता है कल के बिखरे घर को,
नहीं ले पाती वो दोपहर की खिली 
धूप का आनंद ,
उसे करना होता है इंतजाम सबकी भूख का,
सन्ध्या की ठंडी बयार भी नही मिल पाती है उसे,
पूरे घर को व्यवस्थित जो करना होता है ,
कहाँ बैठ पाती है वो चाँद की खिली चांदनी में,
कल की दिनचर्या का ताना बाना जो बुनना है,
फिर उड़ जाती है उसकी रातो की नींद भी,
जब सुनने को मिलता है ये जुमला,
तुम दिन भर करती क्या हो ,
फिर अगले दिन से उसकी वही दिनचर्या शुरू हो जाती है ।।

-पूनम आत्रेय

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