संगम के सीने पर बसा प्रयागराज संगम के पानी में, चांदनी घुल जाती है, गंगा, यमुना के कंधों पर सरस्वती छुप जाती है। जहां जल नहीं, समय बहता है, हर लहर में कोई अधूरा सपना कहता है। प्रयागराज, तुम माटी नहीं, मंत्र हो, सदियों से बहता अनहद तंत्र हो। तुम्हारे घाटों पर बैठे संत, हर सांस में भरते शाश्वत गंध। यहाँ हवा इतिहास सुनाती है, किले की दीवारें समय लिख जाती हैं। जहाँ पत्तों पर भीगी हुई धूप गिरती है, हर किरण से आदिम आस्था झलकती है। तुम संगम हो, जहां देह और आत्मा मिलते हैं, जहां डुबकी में हर जन्म के पाप धुलते हैं। यहां केवल नदियां नहीं मिलतीं, यहां ब्रह्मांड की लय में आत्माएं खिलतीं हैं। तुम्हारे कण-कण में वेद गूंजते हैं, हर पत्थर में ऋषि के स्वर गूंजते हैं। तुम्हारा आकाश गंगा का मार्ग दिखाता है, और धरती पर अमरत्व का स्वाद चखाता है। प्रयागराज, मेरे दिल की धड़कन हो तुम, हर श्वास में बसा हुआ जीवन हो तुम। तुम्हारे बिना मैं अधूरा सा लगता हूँ, तुम्हारे घाटों पर ही मैं पूरा सा लगता हूँ। संगम के पानी में जब खुद को देखता हूँ, प्रयागराज, बस तुम्हारा अक्स पाता हूँ। लफ्ज़ ए समीर. .. ✍ ©sameer Kumar #समीर