ये जो दौड़ भाग रहा है शहर अपनी रफ़्तार में, यह क्या जाने कितना सकूं है गाँव के प्यार में। कहीं चौपालें सजती है कहीं मित्रों की मंडली, खूब रौनकें लगी रहती है पतझड़ में बहार में। अपना गाँव बिल्कुल शहर के जैसा नहीं जहां, महंगे तहफों के लिए याद करते हैं त्यौहार में। पिज़्ज़ा बर्गर चाऊं चौमिन का शौक नहीं यहां, खुश रहते हैं लोग सादे विचार सादे आहार में। घूमना फिरना हँसी ठिठोली ये मौज़ मस्तियां, यहां शहर जैसे नहीं मिलेंगे लोग चार दीवार में। दया करुणा अपनत्व सब है गाँव में मुफ्त का, जो ढूंढने से भी नहीं मिलता शहर के बाजार में। ©एस पी "हुड्डन" #रफ़्तार #Cityscape