राँझा-राँझा रट रही , है राझें की मीत ।। अर्थी संग डोली उठे , यही प्रीत की जीत ।। लैला मजनूं एक थे , देखी जग ने प्रीत । एक साथ दोनो मिटे , यही प्रीत की जीत ।। उसे पराया कर दिया , जग की कैसी रीत । वैरी जग ने छीन ली , मुझसे मेरी प्रीत ।। प्रेम बिना जीवन यहां , लगता है अभिशाप । प्रीत पराई हो गई , लगती जो संताप ।। मात-पिता भाई-बहन , सब है मेरे पास । प्रेम बिना जीवन मगर , रहता सदा उदास ।। पीर पराई पास में , करती सदा सवाल । बिन बोले ये हाल तो , बोले करे बवाल ।। बिन जल के सागर दिखे , जैसे कूप तलाब । प्रेम मिले तो आप भी , बन जाओ महताब ।। मिथ्या इस संसार में , रहते स्वार्थी लोग । अंत समय में देख लो , कर्म रहें हैं भोग ।। महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR राँझा-राँझा रट रही , है राझें की मीत ।। अर्थी संग डोली उठे , यही प्रीत की जीत ।। लैला मजनूं एक थे , देखी जग ने प्रीत । एक साथ दोनो मिटे , यही प्रीत की जीत ।। उसे पराया कर दिया , जग की कैसी रीत । वैरी जग ने छीन ली , मुझसे मेरी प्रीत ।।