White मिट गया उजाला, छा गया अमावस का अंधेरा, पता ही न चला कब आसमान ने चाँद-चकोर को बेच डाला। बड़े हो रहे थे थोड़े-थोड़े, पता ही न चला कब बड़प्पन ने प्यारी मासूमियत को बेच डाला। हँसते थे, मुस्कुराते थे दिनभर, पता ही न चला कब ग़मों ने खुशियों को बेच डाला। सुबह बेच दी, शाम बेच दी, सुख-चैन खरीदने कब हमने अपनी साँसों को बेच डाला। तरक्की में खोए थे इस कदर, पता ही न चला कब हम इंसानों ने अपनी इंसानियत को बेच डाला। ©Sudha Betageri #Sudha