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वजूद ______ ज़र्रे-ज़र्रे में ज़िंदगी समाई है  फिर

 वजूद
 ______

ज़र्रे-ज़र्रे में ज़िंदगी समाई है 
फिर क्यों ये तन्हाई जितनी, समंदर में गहराई है
वाक़िफ़ हैं हक़ीक़त से मगर फिर भी ज़िंदगी, आज़माई है 
आज़माए इतने गए की अब भरोसे पर ही, शक़ घिर आई है

ख़ामोशी एक जवाब और सवाल भी है, कितनों को समझ आई है 
नज़र, नज़ारे देखती है क्या ख़ुद की नज़र को देख पाई है
पैसों के लिए अश्क़, पसीने और ख़ून मगर ख़ून के लिए जान किसने गंवाई है 
इंसान की हवस ऐसी की हैवानियत और मौत भी शर्माई है

मौक़े की तलाश में रहनेवालों की नीयत साफ़ नज़र आई है 
जज़्बात, अलफ़ाज़ और शर्म-ओ-लिहाज़ नहीं फिर क्यों, आँख भर आई है
आसमानी परिंदों ने अपनी जड़ ज़मीं पर ही बनाई है 
पौधों को पानी से सीचे और दूसरी तरफ कटे जड़ समझो अब, उसकी जान पर बन आई है

मनीष राज

©Manish Raaj
  #वजूद