था जो दौर कभी कोई और ही थी सहलाती मेरी ज़ुल्फ़ें जब तुम अपने हाथों से और भर जाता था नूर इन काली काली रातों में अब तो फकत रह गया है गई गुज़री सी बातों में था जो दौर कभी कोई और ही ख्वाहिशें तुम्हारी करती जो दुआओं का सफर मांगती थी मुझे ही वो तेरी हर झुकी सी नज़र जाने छीन कौन ले गया अचानक मुझ से पर था जो दौर कभी कोई और ही बड़े बड़े कामों पर भी न देखे कभी टलते पल फुर्सतों के मेरे लिए ज़रूर थे निकलते पर हां देखा उसे भी आंखों से जलते जलते था जो दौर कभी कोई और ही सांझ मुझ ही से तब तब मुझ ही से सवेरा था कहती थी तुम जहाँ जो मेरा जहाँ वो तेरा था क्या थी खबर सुबह की शक्ल में वो अंधेरा था था जो दौर कभी कोई और ही ©Vishal Sharma #वो_दौर_जिसकी_बात_थी_कुछ_और