बहुत हौले हौले आया था सहर की शुआओं सा उतर गया गहरे अंतर देह के भीतर बन कर मन उजाला बिखर गया था बस मुस्कान ही मुस्कान मैं रोशनी घर सा हर लम्हा जगमगाता रहा कहीं शब्द आखर बन कभी सुरीला मन बन मगर अचानक बंद हो गई खिड़कियां अंधेरों की घुटन से भरा मन ढूंढ़ रहा रोशनी की दर