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"अर्बन नक्सल एडवेंचरिज्म" विष्णु महाराज ने तो अपने

"अर्बन नक्सल एडवेंचरिज्म" विष्णु महाराज ने तो अपने हाथ खड़े कर दिए। कहने लगे-"सृष्टि का सॉफ्टवेयर ऐसा ही है, परमपिता ने बहुत सोच समझ कर बनाया है उसमें कोई दखल नहीं दे सकता!"
'परमपिता ने बनाई है जभी तो गड़बड़ है। एक से खर्राटे लेते हैं, एक को माइग्रेन है, एक कि डायरेक्शन ख़राब है, और एक से धूनी रमा लेते हैं'। विष्णु महाराज हँस पड़े। वे हँसी ठिठोली तो खूब करते लेकिन अपनी बातों से टस से मस नहीं होते थे। इसलिये अपनी बात पर अड़े रहे। लेकिन देवी लक्ष्मी का दिल मानकर ही नहीं देता था। पहले तो उन्होंने सोचा कि क्या पता दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों के साथ बैठकें जमा जमा कर वे जमीनी सूरत-ए-हाल से नावाकिफ़ हों। लेकिन एक रविवार उन्हें वर्ल्ड बैंक के कर्मचारियों के साथ देखा तो वे तो अपने आपे से तो एकदम बाहर हो गयीं। उन्होंने सोचा-'कुछ और नहीं तो कम से कम वे अपने भक्तों को साक्षात दर्शन देकर कुछ समझा बुझा तो सकती हैं।' मृत्युलोक में मुंहजबानी जय जयकार भले उनके पतिदेव की थी लेकिन सबसे ज्यादा बोलबाला तो उनका ही था। वैसे भी जब से उन्होंने ऑक्सफैम की रिपोर्ट पढ़ी थी, उनका तो दिमाग ही भन्नाया हुआ था।
ख़ैर, नियत समय देखकर वे धरती की ओर रवाना हुईं। संयोग से गणतंत्र दिवस का दिन था। परेड के दौरान पूरे देश भर के लोग इकट्ठा हुए थे, ये बिल्कुल सही वक्त था कि वे अपने दिव्य स्वरूप में प्रकट होतीं और एक साथ सभी को संबोधित करतीं। लेकिन पता नहीं कोई तकनीकी ख़राबी थी या फिर राजधानी का प्रदूषण जिम्मेवार था कि उनका औरा चमक ही नहीं पा रहा था। सो वे आगे बढ़ीं। राजपथ के एक कोने से जाने कैसी चमक आ रही थी कि उसकी चकाचौंध में उनका औरा काम नहीं कर रहा था। उन्होंने क़रीब जा कर देखा तो देखा कि एक मृत्युलोकवासी को काफी लोग घेरे हुए थे और उसके मुख प्रकाश से पूरा वातावरण रोशनमय हो रहा था। वे अचंभित होकर उस प्राणी को देखती रहीं। ये तो वही प्राणी था जो हर तीसरे रोज़ किसी दुराचारी को फांसी पर लटकवा देता था उसकी आभा तो सूर्या बल्ब जितनी होनी ही थी।
एक महानगर में दो भगवान एक साथ नहीं रह सकते थे। सबका अपना इलाका सेट था। जभी तो दिल्ली ही नहीं हर महानगर में इतना ही बुरा हाल था। हर महानगर में अलग अलग देवी और देवता लोग विद्यमान थे। ख़ैर से मुम्बई में तो उन्हें लगा कि लोग बाग उनकी बातों से ज्यादा दफ़्तर वक़्त पर पहुंचने में ज्यादा दिलचस्पी लेंगे। तो कहीं ट्रैफिक का शोर बहुत ज्यादा था तो कहीं सड़कें इतनी ख़राब थीं कि उनके एकाएक प्रकट हो जाने से एक्सीडेंट हो जाने का ख़तरा था। एक जगह तो वे क़रीब क़रीब प्रकट हो ही गई थीं लेकिन लोकल साधु संतों ने ऐसा हुल्लड़ मचाया कि प्रशासन उनसे ही आकर जवाब तलब करने लगा। पहले तो उनसे प्रभु होने का सर्टिफिकेट मांगा फिर जब देखा उनके ऊपर कोई मुकदमा नहीं, उनका किसी पार्टी से संबंध नहीं और ये सब तो छोड़ो उन्हें व्यापारी वर्ग भी पहचानता नहीं था।
पहले पहल तो उन्होंने सोचा था कि वे धनीमानी लोगों से अपील करेंगी कि वे अपनी संपदा सिर्फ अपने तक सीमित ना रखें। लेकिन जब मृत्युलोक के उदारवादियों ने पहले ही ये जिम्मा संभाल रखा था तो सिर्फ अपील करने से ही क्या बात बनतीं? वे खाली हाथ लौट आयीं।
देवी पार्वती की तरह वे वामपंथी फेमिनिस्ट नहीं हो सकती थीं। पितृसत्ता के विरोध तक तो वे राजी थीं लेकिन उन्हें रेडिकल होने से सख़्त आपत्ति थी। वहीं देवी सरस्वती की शिक्षा एवं जागरूकता वाला रास्ता भी कुछ असर छोड़ते हुए नहीं दिख रहा था। किताबों में जिसे पढ़ाते उसका रद्देअमल उनके पुतले फूँक कर होता। पढ़ा भाईचारा और ढहा दी मस्ज़िद। सुनाये पंचशील सिद्धांत, करे युद्ध। कहा सब एक हैं निभाया छुआछूत। कहा औरत को लक्ष्मी लेकिन वो हमेशा कंगली ही रही। शिक्षा का यों हाल था वहीं जागरूकता के पौ बारह थे। घर बैठे बैठे हर बंदा जानता था कि नेहरू अय्याश था। सावरकर महान थे। इंदिरा मुसलमान थी। भगत संघी था। विवेक बाबू हिंदुत्ववादी थे।
ब्रेनस्टोर्मिंग से उनका सिर फटा जा रहा था। वैसे भी सेंट्रिस्ट इंसान ज्यादा सोचने लगे तो वो अस्तित्ववादी हो जाता है। वे तो फिर भी देवी थीं। ख़ैर। सब बुरा भी नहीं था। इन सभी उलझनों के बीच उन्होंने बड़े जुगाड़ से एनएनएसओ की रिपोर्ट सार्वजनिक करवाई थी, जिसका कुछ कुछ असर तो दिख रहा था।
मृत्युलोक की चिंता में वे भूल ही गई थीं कि उनके पतिदेव के ही सौजन्य से ये सारे उपक्रम हो रहे थे। वे जब धरती पर थीं तो वे ब्लॉग लिख कर सबको सचेत कर रहे थे। बेरोजगारी के दावों को झूठा बता रहे थे। 'अर्बन नक्सल एडवेंचरिज्म' का सिद्धांत दे रहे थे। #paidstory
"अर्बन नक्सल एडवेंचरिज्म" विष्णु महाराज ने तो अपने हाथ खड़े कर दिए। कहने लगे-"सृष्टि का सॉफ्टवेयर ऐसा ही है, परमपिता ने बहुत सोच समझ कर बनाया है उसमें कोई दखल नहीं दे सकता!"
'परमपिता ने बनाई है जभी तो गड़बड़ है। एक से खर्राटे लेते हैं, एक को माइग्रेन है, एक कि डायरेक्शन ख़राब है, और एक से धूनी रमा लेते हैं'। विष्णु महाराज हँस पड़े। वे हँसी ठिठोली तो खूब करते लेकिन अपनी बातों से टस से मस नहीं होते थे। इसलिये अपनी बात पर अड़े रहे। लेकिन देवी लक्ष्मी का दिल मानकर ही नहीं देता था। पहले तो उन्होंने सोचा कि क्या पता दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों के साथ बैठकें जमा जमा कर वे जमीनी सूरत-ए-हाल से नावाकिफ़ हों। लेकिन एक रविवार उन्हें वर्ल्ड बैंक के कर्मचारियों के साथ देखा तो वे तो अपने आपे से तो एकदम बाहर हो गयीं। उन्होंने सोचा-'कुछ और नहीं तो कम से कम वे अपने भक्तों को साक्षात दर्शन देकर कुछ समझा बुझा तो सकती हैं।' मृत्युलोक में मुंहजबानी जय जयकार भले उनके पतिदेव की थी लेकिन सबसे ज्यादा बोलबाला तो उनका ही था। वैसे भी जब से उन्होंने ऑक्सफैम की रिपोर्ट पढ़ी थी, उनका तो दिमाग ही भन्नाया हुआ था।
ख़ैर, नियत समय देखकर वे धरती की ओर रवाना हुईं। संयोग से गणतंत्र दिवस का दिन था। परेड के दौरान पूरे देश भर के लोग इकट्ठा हुए थे, ये बिल्कुल सही वक्त था कि वे अपने दिव्य स्वरूप में प्रकट होतीं और एक साथ सभी को संबोधित करतीं। लेकिन पता नहीं कोई तकनीकी ख़राबी थी या फिर राजधानी का प्रदूषण जिम्मेवार था कि उनका औरा चमक ही नहीं पा रहा था। सो वे आगे बढ़ीं। राजपथ के एक कोने से जाने कैसी चमक आ रही थी कि उसकी चकाचौंध में उनका औरा काम नहीं कर रहा था। उन्होंने क़रीब जा कर देखा तो देखा कि एक मृत्युलोकवासी को काफी लोग घेरे हुए थे और उसके मुख प्रकाश से पूरा वातावरण रोशनमय हो रहा था। वे अचंभित होकर उस प्राणी को देखती रहीं। ये तो वही प्राणी था जो हर तीसरे रोज़ किसी दुराचारी को फांसी पर लटकवा देता था उसकी आभा तो सूर्या बल्ब जितनी होनी ही थी।
एक महानगर में दो भगवान एक साथ नहीं रह सकते थे। सबका अपना इलाका सेट था। जभी तो दिल्ली ही नहीं हर महानगर में इतना ही बुरा हाल था। हर महानगर में अलग अलग देवी और देवता लोग विद्यमान थे। ख़ैर से मुम्बई में तो उन्हें लगा कि लोग बाग उनकी बातों से ज्यादा दफ़्तर वक़्त पर पहुंचने में ज्यादा दिलचस्पी लेंगे। तो कहीं ट्रैफिक का शोर बहुत ज्यादा था तो कहीं सड़कें इतनी ख़राब थीं कि उनके एकाएक प्रकट हो जाने से एक्सीडेंट हो जाने का ख़तरा था। एक जगह तो वे क़रीब क़रीब प्रकट हो ही गई थीं लेकिन लोकल साधु संतों ने ऐसा हुल्लड़ मचाया कि प्रशासन उनसे ही आकर जवाब तलब करने लगा। पहले तो उनसे प्रभु होने का सर्टिफिकेट मांगा फिर जब देखा उनके ऊपर कोई मुकदमा नहीं, उनका किसी पार्टी से संबंध नहीं और ये सब तो छोड़ो उन्हें व्यापारी वर्ग भी पहचानता नहीं था।
पहले पहल तो उन्होंने सोचा था कि वे धनीमानी लोगों से अपील करेंगी कि वे अपनी संपदा सिर्फ अपने तक सीमित ना रखें। लेकिन जब मृत्युलोक के उदारवादियों ने पहले ही ये जिम्मा संभाल रखा था तो सिर्फ अपील करने से ही क्या बात बनतीं? वे खाली हाथ लौट आयीं।
देवी पार्वती की तरह वे वामपंथी फेमिनिस्ट नहीं हो सकती थीं। पितृसत्ता के विरोध तक तो वे राजी थीं लेकिन उन्हें रेडिकल होने से सख़्त आपत्ति थी। वहीं देवी सरस्वती की शिक्षा एवं जागरूकता वाला रास्ता भी कुछ असर छोड़ते हुए नहीं दिख रहा था। किताबों में जिसे पढ़ाते उसका रद्देअमल उनके पुतले फूँक कर होता। पढ़ा भाईचारा और ढहा दी मस्ज़िद। सुनाये पंचशील सिद्धांत, करे युद्ध। कहा सब एक हैं निभाया छुआछूत। कहा औरत को लक्ष्मी लेकिन वो हमेशा कंगली ही रही। शिक्षा का यों हाल था वहीं जागरूकता के पौ बारह थे। घर बैठे बैठे हर बंदा जानता था कि नेहरू अय्याश था। सावरकर महान थे। इंदिरा मुसलमान थी। भगत संघी था। विवेक बाबू हिंदुत्ववादी थे।
ब्रेनस्टोर्मिंग से उनका सिर फटा जा रहा था। वैसे भी सेंट्रिस्ट इंसान ज्यादा सोचने लगे तो वो अस्तित्ववादी हो जाता है। वे तो फिर भी देवी थीं। ख़ैर। सब बुरा भी नहीं था। इन सभी उलझनों के बीच उन्होंने बड़े जुगाड़ से एनएनएसओ की रिपोर्ट सार्वजनिक करवाई थी, जिसका कुछ कुछ असर तो दिख रहा था।
मृत्युलोक की चिंता में वे भूल ही गई थीं कि उनके पतिदेव के ही सौजन्य से ये सारे उपक्रम हो रहे थे। वे जब धरती पर थीं तो वे ब्लॉग लिख कर सबको सचेत कर रहे थे। बेरोजगारी के दावों को झूठा बता रहे थे। 'अर्बन नक्सल एडवेंचरिज्म' का सिद्धांत दे रहे थे। #paidstory
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