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प्रज्जवलना जब चीर रही हो कश्ती वक्ष समन्दर का, तब

प्रज्जवलना

जब चीर रही हो कश्ती वक्ष समन्दर का,
तब लहरों से अड़ कर लड़ना पड़ता है,
गर  छाती में लालीत  सूरज जलता हो,
तो पत्थर को भी पिघलना पड़ता हैं,

हार स्वीकार नहीं, बस थोड़ा थामना पड़ता है,
रात अंधेरी हो तो जगमग ,दीप जलाना पड़ता है,
यूँ नही मिलती किसी राही को उसकी मंजिल,
रातों की मनुहार भरी नींदों से लड़ना पडता है,

सफर में एक न एक दिन चिरागों को प्रज्जवलना पड़ता है,
बाप कितना भी नामदार हो,धूप में खुद को तपाना पड़ता है,
और फ़र्श-ए-मंजिल में काँटे बहुत मिलेंगे,
इरादे अटल हों तो पर्वत को भी झुकना पड़ता है,

लहजे में जी हजूरी और अदब जरूरी होता है,
गर चढ़ना हो पहाड़ पर तो झुकना जरूरी होता है,
औऱ कितना भी इतराए नदी अपने छलछले पन में ,
आखिर में विसर्जन तो समन्दर में ही होना होता है,


                             कवि दिप्तेश तिवारी #प्रज्वलना
प्रज्जवलना

जब चीर रही हो कश्ती वक्ष समन्दर का,
तब लहरों से अड़ कर लड़ना पड़ता है,
गर  छाती में लालीत  सूरज जलता हो,
तो पत्थर को भी पिघलना पड़ता हैं,

हार स्वीकार नहीं, बस थोड़ा थामना पड़ता है,
रात अंधेरी हो तो जगमग ,दीप जलाना पड़ता है,
यूँ नही मिलती किसी राही को उसकी मंजिल,
रातों की मनुहार भरी नींदों से लड़ना पडता है,

सफर में एक न एक दिन चिरागों को प्रज्जवलना पड़ता है,
बाप कितना भी नामदार हो,धूप में खुद को तपाना पड़ता है,
और फ़र्श-ए-मंजिल में काँटे बहुत मिलेंगे,
इरादे अटल हों तो पर्वत को भी झुकना पड़ता है,

लहजे में जी हजूरी और अदब जरूरी होता है,
गर चढ़ना हो पहाड़ पर तो झुकना जरूरी होता है,
औऱ कितना भी इतराए नदी अपने छलछले पन में ,
आखिर में विसर्जन तो समन्दर में ही होना होता है,


                             कवि दिप्तेश तिवारी #प्रज्वलना