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kavidipteshtiwar1715
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Kavi Diptesh Tiwari

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Kavi Diptesh Tiwari

*सफ़र* 
रेल के बढ़ते हर कदम ,कुछ खोता देखा हैं,
मैंने अपनी माँ को चुपके-चुपके रोता देखा है,

छोडक़र घर अपना ,मकां ढूंढता हूँ इस शहर में,
बात जिंदगी की थी,वरना मज़ा क्या है इस ज़हर में?

वो कह रहे थे,करना क्या पड़ेगा इस जफ़र मे?
मेरे यार !आँशु भी झलकेंगे इस सफर में,

बीज मेहनतों के बड़ी,बारीकियों से बो रहा हूँ,
नींद गहरी न लगे,इसलिए ज़मी पर सो रहा हूँ,

महल मेरे भी है,मगर कुटि-प्रवास कर रहा हूँ,
सपने बड़े है मेरे ,इसलिए वनवास कर रहा हूँ,

मंज़िल दूर नही ,कहता मेरा हौंसला है,
बस छोटे शहर से बड़े शहर का फासला है,

है अंधेरा अभी,मगर सूरज निकलने वाला है,
देखो! मुझको हसरत-ए-दीद मिलने वाला है,

           *--- कवि दिप्तेश तिवारी*

©Kavi Diptesh Tiwari सफ़र

सफ़र

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Kavi Diptesh Tiwari

लिखते-लिखते रोता हूँ मैं ,अमर शहीदों की कुर्वानी,
सरहद पर जो लिख जाते है,साहस की एक नई कहानी,

बस कुछ दिन पहले हि मेहंदी लगवाई थी,
जो लडक़ी मेरे ख़ातिर सब छोड़ कर आई थी,

अम्मा ने भी बोला था की जल्दी क्यो है बेटा,
कुछ दिन रुकले अभी जी भर तुझे नही देखा,

बापू की लाठी दरवाज़े से टकराई,अम्बा पर चिंघाड़ा,
अरे भाग्यवान सर ऊंचा है बेटे से समझाया औऱ दहाड़ा,

एक-एक  बागी सौ-सौ भेड़ों पर भारी पड़ता है,
जब भारत का वीर सिपाही रण में लड़ता है,

कुछ घायल हो-हो कर भी शत्रु को ललकारा करते है,
औऱ हम जैसे बापों के बेटे सरहद पर जयघोष लगाया करते है,

वो मिट जाते है सिमा पर इस माटी का कर्ज़ चुकाने को,
लिख जाते है अमिट कहानी भारत मा की लाज बचाने को,

वीर कथा कहते कहते भर आता है अँखियों में पानी,
लिखते-लिखते रोता हूँ मैं ,अमर शहीदों की कुर्वानी,

-कवि दिप्तेश तिवारी
@kdt #IndianArmy कुर्वानी

#IndianArmy कुर्वानी #poem

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Kavi Diptesh Tiwari

बेहद तहज़ीब के शायर है। वो हमेशा कहते है हिंदुस्तान किसी के बाप का थोड़ी है।उसका उत्तर इस प्रकार.........
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
शैतानी तहज़ीब के मुखोटे में,वो इंसान थोड़ी है,
भगवान थे अब्दुल कलाम ,मग़र ये क़ौम थोड़ी है,
और लहू शामिल है मिट्टी में,केवल हमारे रणबाकुरों का
हाँ मेरे बाप का हिन्दुस्तान है,तेरे बाप का थोड़ी है,

-कवि दिप्तेश तिवारी #footprints
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Kavi Diptesh Tiwari

🚩🇮🇳 *म्यान अर्थ में अब आ गयी* 🚩🇮🇳

ज्योत जो अखण्ड थी ,गर्त में अब आ गयी,
सूर्य भी शिथिल पड़ा, बात शर्त में अब आ गयी,
कर चुके जो माफ ,पुण्य - पाप में समा गयी,
भर गया गढ़ा पाप का,म्यान अर्थ में अब आ गयी,

बह चुके हैं रक्त, स्वर्ग सी धरा नरिक्त में अब आ गयी,
है चढ़ चुका कफ़न ,तो काल व्यर्थ में अब आ गयी,
सून से पड़े सड़क,लग रहा भय हृदय समा गयी,
जाति कैद है मनुष्य कि,मूक जीव तीर्थ में अब आ गयी,

थूंक कर उपचारको पर, सूची दैत्य में अब आ गयी,
ख़ुदा!क्या नियत कौम कि, सत्य में अब आ गयी,
घुल गया विष अशफाक में,या अब्दुल में समा गयी
ऐसा तो नही नियत ईमाम की,अस्तित्व में अब आ गयी,

छेड़ दी धारा नदी की ,आसमा विशुद्ध में अब आ गयी,
कट गये है पेड़ इसलिए प्रकृति विरुद्ध में अब आ गयी,
कर रही संतुलन क्रुद्ध भाव रोष में अब आ गयी
संघार कर पाप का फिर धरा,पथ अनिरुद्ध में अब आ गयी,

                              कवि दिप्तेश तिवारी म्यान अर्थ में अब आ गयी🇮🇳🇮🇳

म्यान अर्थ में अब आ गयी🇮🇳🇮🇳 #poem

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Kavi Diptesh Tiwari

अरे सुनो! हाँ तुम ,हम जिंदा रहे तो कल सियासत फिर जारी रहेगी, 

आज मिल के लड़ते हैं, आपसी मतभेद तो कल भी जारी रहेगी,

-कवि दिप्तेश तिवारी #hindumuslimunity
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Kavi Diptesh Tiwari

।
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳👏👏👏👏👏🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
👏👏 *धन्य तुम्हारा तुम्हारा हे जन* 👏👏
धन्य तुम्हारा भारतवासी ,माटी सदा ऋणी रहेगी,
संघर्ष समय में सहयोग तुम्हारा सदा गुढी रहेगी,

घर में रह कर तुमने,निज कर्तव्यों का मान रखा,
धन्य तुम्हारा हे जन,जो जन-गण-मन का मान रखा,

माना सूरज डूब रहा,अँधियारा हमपे हावी है,
लेकिन हिम्मत हो तो, एक चींटी हांथी पे भारी है,

विकसित देश हुए पीछे,हमने अपना पहचान रखा है,
धन्य तुम्हारा हे जन,जो जन-गण-मन का मान रखा है,

करतल ध्वनि में कंपन, शंकर के डमरू वाली थी,
और विषाणु में भी बल सर्वस्व मिटाने वाली थी,

सरल नही था!लड़कर हमने अपना मान रखा है,
धन्य तुम्हारा हे जन,जो जन-गण-मन का मान रखा,

कुछ ईस्वर हैं जिनका ऋणी समूचा देश रहेगा,
वो पुलिस,सिपाही,या फिर कोई उपचारक का भेष रहेगा,

नमन हमारा उनको जिनने सबका ध्यान रखा,
धन्य तुम्हारा हे जन,जो जन-गण-मन का मान रखा,

              *-कवि दिप्तेश तिवारी* tqs to all who support in janta curfew

tqs to all who support in janta curfew

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Kavi Diptesh Tiwari

होली

अंधकार में डूबा तन मन क्यो सूरज की आस लगाता है
जुगनू सा साहस हो, तो स्वयं सवेरा आता है,
केवल रंग-रंगोली,कुमकुम-रोली इतना थोड़ी है,
ये रंगों का त्योहार हमे कुछ खास बताता है,

रंगों के पिचकारी से अम्बर भी मुस्काता है,
ये रंगों का त्योहार हमे सौहार्द सिखाता है,
केवल गालों में रंगों का स्पर्शन थोड़ी है,
ये रंगों का त्योहार हमे कुछ खास बताता है,

राहगीर जो भटक गया उसको ये राह दिखाता है
ये त्योहार हमे अंधियारे से उजियारे की खोज बताता है,
केवल गाने-बाजे,मस्ति और धूम-धड़क्का थोड़ी है,
ये रंगों का त्योहार हमे कुछ खास बताता है,

जली होलिका,लेकिन सत्य कहां मर पाता है
ये त्योहार हमे प्रह्लाद अमर कथा बताता है,
केवल रंग खेलना सड़को पर ही मकसद थोड़ी है,
ये रंगों का त्योहार हमे कुछ खास बताता है,

                       - कवि दिप्तेश तिवारी #Happy_holi
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Kavi Diptesh Tiwari

🔥🔥🔥 *जी-जान से पढ़ना होगा* 🔥🔥

सीढ़ी पर धीरे-धीरे,पग-पग कर तुमको चढ़ना हैं,
गर राह चुनी है तुमने,तो जी-जान लगा कर पढ़ना हैं,
और बूंद-बूंद कर हि,तुमको ज्ञान का सागर भरना हैं,
गर देख रहे हो सपना,तो जी-जान से पूरा करना हैं,

माथे पर टोपी और कन्धे पर अलग चमक ही बिखरेगी,
जब मेहनत कुछ कर जाने वाली दिन-ब-दिन निखरेगी,
विश्वास टिका है सबका,बस हमे खरा उतरना हैं,
गर देख रहे हो सपना,तो जी-जान से पूरा करना हैं,

नशा हमे बस लाल बहादुर के डंडे का है,
और सीने में लगन तो केवल अमर तिरंगें का है,
शूल बिछे हैं जिन राहों पर,उसपर हमको चलना है,
गर देख रहे हो सपना तो,जी-जान से पूरा करना हैं,

यहाँ सभी शिकारी हैं,कुछ शर्त तुम्हे समझना है,
सम्बन्ध किसी से न हो ,मग़र रिश्ता सबसे तुम्हे निभाना है,
और! नही कुछ, बस मोती के धागे सा करतब करना है,
गर देख रहे हो सपना,तो जी-जान से पूरा करना हैं,

       ◆ *कवि दिप्तेश तिवारी* #upscaspirant
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Kavi Diptesh Tiwari

किस्मत भी कभी-कभी ,तमांचा मार जाती है,

उसे क्या पता कि लकीर मेहनत से हार जाती है,

-कवि दिप्तेश तिवारी #manzil
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Kavi Diptesh Tiwari

ज़मात(समुदाय)कहाँ मिलती है?

मैं अल्फाजों से मलहम लगता हूँ, तो वो ज़ख्म सिलती है,
मैं गीत लिखता हूँ  मोहब्बत के, तो वो नज़्म लिखती है,
हाँ मुहब्बत थी मुझे,मगर सबको सुख़नसाज(छल) की रात कँहा मिलती है,
मैं हिन्दू था,वो हाज़ी थी, हमारी ज़मात(जात) कहाँ मिलती है,

छिपा सीने में ज़ख्म मैं ग़ालिब तो वो शायर बनगई,
लगे न दाग़ मज़हब पे इसलिए वो कायर बनगई,
और  प्रेम की मोती तो सबने गुही अपने-अपने ताक पर,
शायद इसलिए हिन्दू-मुस्लिम में तकरार बनगई,

जिस्म तो फ़रेब है,हमे तो रूह से मयकशी है,
तू कहीं भी रहे ,मग़र मेरी ही हमनशीं (हमसफ़र)है,
अब कुछ नही ऐसा, ये सब बातें डायरी में मिलती है,
मैं गीत लिखता हूँ मुहब्बत के,तो वो नज़्म लिखती है,

अगर गूँजे मंदिरों से अज़ान, तो ये अपनी ज़दा(तमीज़) है,
लगाएं हक्का(परिक्रमा)मस्जिदों की वो अपनी अदा है,
कभी हो न पायेगा ऐसा,सब बातें किताबों में मिलती हैं,
मैं गीत लिखता हूँ मोहब्बत के तो वो नज़्म लिखती हैं,

                          -कवि दिप्तेश तिवारी new poem on new yaer 2020

new poem on new yaer 2020 #कविता

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