हाथ में प्रेम की पातियाँ ले, नदी किनारे, उस बूढ़े बरगद के नीचें बैठ, अपनी तर्जनी से जब मैनें, सावन की विरह बूँदों से भीगी, उस गिली मिट्टी पर उसका अक्स उकेरा, तो दिल, मिट्टी में मिली उन बूँदों के जैसे, किसी प्यासे की प्यास बुझाने को तड़प गया, नक्श दर नक्श जो, करीने से बनाया अक्स उसका, जैसे कोई कुम्हार बनाने से पहले सोचता है, मिट्टी के आगे का अस्तित्व तय करता है, कि...उस गीली मिट्टी को क्या रूप दूँ, दिलों को जलाती चिलम बनाऊँ....या शीतलता पहुँचाए मन को...वो सुराही बनाऊँ, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #गलती हाथ में प्रेम की पातियाँ ले, नदी किनारे, उस बूढ़े बरगद के नीचें बैठ, अपनी तर्जनी से जब मैनें,