पुष्प की लता नहीं पर श्रमिक हूं मैं, शब्द ही मुझे मान लो, क्षणिक हूं मैं। तय नहीं कोई सफर कोई भी राह, क्या उचित और अनुचित भ्रमित हूं मैं। मन प्रभावित और अबोध इस कदर, लांघ देती प्रति मेढ़ को, ललित हूं मैं। प्रेम का गगन मुझे न रास आया, अब तो सर्वदा को ही पथिक हूं मैं। मेरे तन मन में प्रिय के आग को बुझने न दूंगी कभी, निश्चित हूं मैं! तन में मेरे सादगी पर भिन्न मन, एक प्रतिमा मैं नहीं, दो चरित्र हूं मैं। "कालजयी" की तुमको न पहचान है, काल सा ही जान लो, अकथित हूं मैं। For bettr view: पुष्प की लता नहीं पर श्रमिक हूं मैं, शब्द ही मुझे मान लो, क्षणिक हूं मैं। तय नहीं कोई सफर कोई भी राह, क्या उचित और अनुचित भ्रमित हूं मैं।