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मानवता में छेद, जात-पात का भेद आहिस्ता अजगर बन

मानवता में छेद, जात-पात का भेद 

आहिस्ता अजगर बन  निगल रहा  ये जात-पात का भेद
इंसान जब से इंसानियत भूल बैठा, मानवता में हुई छेद।
अब किस पर करें भरोसा, किस से करें गुहार, हो बदलाव 
इंसानियत मर चुकी भीतर ही, बस इसी बात का है खेद।

यह कैसे विकसित देश की  परिकल्पना सजाई जा रही है
किस बात का जश्न, किस बात की खुशी मनाई जा रही है।
अब तो अपना ही अपने को पहचानने से करने लगा इंकार 
नाम का 'वसुधैव कुटुंबकम्' की परिपाटी मनाई जा रही है।

पूछ रहे आज भी व्याकुल होकर, कितनी निर्दोष ऑंखें भाई
ऊॅंच-नीच, जात-पात की खाई आज तक क्यों भर नहीं पाई।
दीमक बन समाज की नींव को कर रहें इस तरह से खोखला
कि पैरों तले खिसक रही है ज़मीन, यह बात समझ नहीं आई।

मानवता भी अब दे रही दुहाई, बंद करो ये जात-पात का खेल
भूल आपसी मतभेद, ऊॅंच-नीच, करो परस्पर आपस में मेल।
मानव जन्म है तो  मानवता भी सदा रहे बरकरार, स्मरण रहे 
तुम ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति, तुम्हारे वजूद का कुछ तो हो मेल।

©Archana Verma Singh
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