ज़िंदगी फिर से उलझने लगी है बात सारी फिर बिगड़ने लगी है हलचलों का दौर थमता ही नहीं वक्त की रफ्तार फिर थमने लगी है अपने अब अपने से लगते ही नहीं। दिल में सबके दूरियां पलने लगी है। बात अच्छी ही नहीं लगती कोई बातें सबकी सबको ही चुभने लगी है। अपनी है दुनिया, है अपनी ज़िंदगी रिश्तों की कीमत बदलने लगी है। अपना होकर भी नहीं अपना कोई बस जरूरत के लिए ढलने लगी है। खो गए रिश्ते मिटा सब अपनापन रिश्ते ख़ुदग़र्ज़ियों पर चलने लगी है। रिपुदमन झा 'पिनाकी' धनबाद (झारखण्ड) स्वरचित एवं मौलिक ©रिपुदमन झा 'पिनाकी' #ज़िन्दगी