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धूप..! धूप किसको अच्छा नहीं लगता..? पर.. गर्मी

धूप..! 
धूप किसको अच्छा नहीं लगता..? 
पर.. 
गर्मी की धूप चाहता कौन है..? 
ठण्ड में सबको चाहता है धूप, 
घनघोर वर्षा के बाद भी धूप ख़ूब सुहाता है, 
पर.. 
गर्मी की धूप कौन चाहता है..? 
मैं भी इसी धूप की तरह हूँ, 
कभी नहीं सुहाती, 
पर.. 
बिना मेरे संभाल नहीं सकते अपने बिखरे संसार को, 
इस धूप की तरह मेरी ज़रूरत पड़ेगी ही। 

दूब..! 
हाँ..! 
मैं उस दूब की तरह ही हूँ
जिसे तुम नित्य-प्रति अपने पाँव तले रौंदते हो, 
इधर ऊधर दिख जाए तो उखाड़ कर फेंक भी देते हो, 
पर..  
पूजा की थाली में स्थान भी दिया जाता है, 
देव-पूजा में समर्पित किया जाता है, देव शीष पर चढ़ाया जाता है, 
बिना उसके पूजा समपन्न नहीं होती,
अनिवार्यतः उसको रखना ही पड़ता है, 
पर.. 
निर्रथक समझकर उसको नोचते फिरते हो । 
मैं भी उसी दूब जैसी हूँ, लाख तिरस्कार करो, 
पर.बिना मेरे तुम्हारी पूजा सम्पन्न नहीं होगी। 

फूल..! 
फूल किसे पसंद नहीं. .? 
कौन है जो इसकी खूबसूरती और सुगंध से मुँह फेर सकता है..? 
हर कर्म, यथा जन्म से मृत्यु तक
पूजा की थाली में भी, इसकी अनिवार्यता किसको नहीं पता, 
पर... 
उसी फूल को कितनी बेरहमी से तोड़ मरोड़ कर मसल कर फ़ेक देते हो, 
और ज़रूरत पड़ने पर तलाशने लगते हो एक अदद फूल को। 
मैं भी उसी फूल जैसी हूँ, 
जब तलक हूँ तुम्हारा घर आँगन महकता रहता है, 
पर.. तुम नहीं समझते इसके महत्व को। 
तुम्हारे लाख उपस्थिति तोड़ने और फेकने के बावज़ूद
मेरी उपस्थिति के बिना तुम अपना कार्य पूर्ण नहीं कर सकते। 


ये तो फ़ितरत है तुम्हारी हर चीज को फेकना 
और फिर ज़रूरत पड़ने पर उसकी तलाश करना। 
कब बदलोगे अपनी फितरत को, और कब समझोगे कि इस दुनिया में कुछ भी बेकार नहीं है। 
कुछ भी नहीं..।। 

शिप्रा पाण्डेय 'जागृति'

©Kshipra Pandey #मैं उसी दूब जैसी हूँ
धूप..! 
धूप किसको अच्छा नहीं लगता..? 
पर.. 
गर्मी की धूप चाहता कौन है..? 
ठण्ड में सबको चाहता है धूप, 
घनघोर वर्षा के बाद भी धूप ख़ूब सुहाता है, 
पर.. 
गर्मी की धूप कौन चाहता है..? 
मैं भी इसी धूप की तरह हूँ, 
कभी नहीं सुहाती, 
पर.. 
बिना मेरे संभाल नहीं सकते अपने बिखरे संसार को, 
इस धूप की तरह मेरी ज़रूरत पड़ेगी ही। 

दूब..! 
हाँ..! 
मैं उस दूब की तरह ही हूँ
जिसे तुम नित्य-प्रति अपने पाँव तले रौंदते हो, 
इधर ऊधर दिख जाए तो उखाड़ कर फेंक भी देते हो, 
पर..  
पूजा की थाली में स्थान भी दिया जाता है, 
देव-पूजा में समर्पित किया जाता है, देव शीष पर चढ़ाया जाता है, 
बिना उसके पूजा समपन्न नहीं होती,
अनिवार्यतः उसको रखना ही पड़ता है, 
पर.. 
निर्रथक समझकर उसको नोचते फिरते हो । 
मैं भी उसी दूब जैसी हूँ, लाख तिरस्कार करो, 
पर.बिना मेरे तुम्हारी पूजा सम्पन्न नहीं होगी। 

फूल..! 
फूल किसे पसंद नहीं. .? 
कौन है जो इसकी खूबसूरती और सुगंध से मुँह फेर सकता है..? 
हर कर्म, यथा जन्म से मृत्यु तक
पूजा की थाली में भी, इसकी अनिवार्यता किसको नहीं पता, 
पर... 
उसी फूल को कितनी बेरहमी से तोड़ मरोड़ कर मसल कर फ़ेक देते हो, 
और ज़रूरत पड़ने पर तलाशने लगते हो एक अदद फूल को। 
मैं भी उसी फूल जैसी हूँ, 
जब तलक हूँ तुम्हारा घर आँगन महकता रहता है, 
पर.. तुम नहीं समझते इसके महत्व को। 
तुम्हारे लाख उपस्थिति तोड़ने और फेकने के बावज़ूद
मेरी उपस्थिति के बिना तुम अपना कार्य पूर्ण नहीं कर सकते। 


ये तो फ़ितरत है तुम्हारी हर चीज को फेकना 
और फिर ज़रूरत पड़ने पर उसकी तलाश करना। 
कब बदलोगे अपनी फितरत को, और कब समझोगे कि इस दुनिया में कुछ भी बेकार नहीं है। 
कुछ भी नहीं..।। 

शिप्रा पाण्डेय 'जागृति'

©Kshipra Pandey #मैं उसी दूब जैसी हूँ

#मैं उसी दूब जैसी हूँ #कविता