चाहा आकाश ज्यादा चाही धरती भी ज्यादा जितने की जरूरत ही नहीं थीं उससे भी ज़्यादा बेरुखी का क्या करते शिकवा भी क्यों करते हमें तो हर तदवीर पर यकीन था ज्यादा मेरी किस्मत मे नहीं था कि वो बादल यहां आकर बरस जाता वो तो वही जास्कर बरसा है जहां था पानी बहुत ज्यादा शायद अब बिछड़ने का वक़्त नज़दीक आ चुका है तभी तो हर सांझ लगने लगी है उदास और भी ज्यादा ©Parasram Arora और भी ज्यादा......