पूष की सर्द रात ढ़ले, चल रही थी मै अकेले, साँझ तो कब की सिमट चुकी थी, अँधियारे की चादर ताने, दिन-भर के थके-मादे, रास्ते भी सुस्ता रहें थें, कुहरे की नर्म रजाई के सहारे, बस मेरे कदमों के पड़ते पद्चाप, हर दर खटखटा रहे थें रास्तों के, और..आधी रात के बीच, अपनी प्रेमिकाओं के लिए गाये, झींगुरों के प्रेमगीत, गुंजायमान थें चहुँदिश, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #शमशान_का_सिपाही.. पूष की सर्द रात ढ़ले, चल रही थी मै अकेले, साँझ तो कब की सिमट चुकी थी, अँधियारे की चादर ताने,