ग़ज़ल बा-वजू हो के आ गया मैं तो इतना क्यूँ एहतराम,मैख़ाने का सारे रस्मों रिवाज तोड़ चला क्यूँ नहीं फ़िक्र है, ज़माने का ये दर-ए-पीर औलिया तो नहीं ये तो दर है किसी, दीवाने का मैं हूँ आवारगी में बेपरवाह तुमको है शौक आज़माने का - अशरफ फ़ानी कबीर ©🎭Ashraf Fani Kabir🌷🌼 ग़ज़ल बा-वजू हो के आ गया मैं तो इतना क्यूँ एहतराम,मैख़ाने का सारे रस्मों रिवाज तोड़ चला क्यूँ नहीं फ़िक्र है, ज़माने का