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माँ के हृदय ने नेह छलकाने में कभी एक क्षण जो थोड़ा

माँ के हृदय ने नेह छलकाने में कभी एक क्षण जो थोड़ा पार्थक्य किया हो, चारों बच्चों की परवरिश में पुतुल ने कभी विभेद नहीं किया। किंतु अपनी गृहस्थी में बोदी की उपस्थिति उसे व्यथित कर जाती।

(Read in caption.. 3rd story ) पुतुल, छरहरे गठन की सुंदर, तेज तर्रार युवती। घर-बाहर सब अकेले ही संभालती। बड़े सरकारी अधिकारी थे जमाई बाबू। उन्हें नौकरी से फुर्सत कहाँ होती। खूब कमाते और लाकर रख देते पुतुल के सामने। पुतुल बड़ी सूझबूझ से खर्च करती, बचाती। ऐसे भागती- दौड़ती , जैसे गृहस्थी नहीं, सारा संसार वही चला रही हो। वैसे संसार ही बसा रखा था उसने। सुबह चार बजे उठने के साथ उसका ढाबा शुरू हो जाता, बच्चों की स्कूल का टिफिन, सुबह का नाश्ता, घर पर रुके मेहमानों का नाश्ता खाना और सब निपटा कर धोबी का पाट खोल कर बैठती। नहा के पूजा पर बैठती, पति- पुत्र और ना जाने किन- किन चीजों के मंगल हेतु एक से डेढ़ घंटे पाठ करती। पूजा से उठते ही भागती, बेटी को बस स्टॉप से लेकर वापस आती फिर दो निवाला उस के गले से उतरता। राजधानी में रहने की सुविधा है तो उसकी कीमत भी है। जमाई बाबू राजधानी से दूर पदस्थापित थे, बच्चों की अच्छी शिक्षा हेतु  पुतुल एक बार राजधानी में जमी तो हिली नहीं। नया घर, नयी गाड़ी, रोज की रिश्तेदारी, बड़े शिक्षण संस्थान में बच्चों की पढ़ाई, सारी जिम्मेदारी उसने बखूबी संभाली। आने-जाने और ठहरने वाले रिश्तेदारों की कमी नहीं थी, किसीकी परीक्षा, किसीका इलाज अब राजधानी में रहो तो रिश्तेदारी बढ़ ही जाती है। सबके खाने-पीने, सोने का इंतजाम करना, और सप्ताह के अंत में पति का इंतजार करना, कभी चैन की सांस लेते किसीने नहीं देखा। 

पुतुल अपने मायके की दुलारी चंचल गुड़िया थी। इसलिए प्यार से नाम भी पुतुल (गुड़िया) रखा था। बाबा ने बड़े शौक से कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में बीए ऑनर्स कराया। बाकी बेटियों की शादी कम उम्र में व्यापारी घरों में की थी। पुतुल अंतिम थी तो सोचा कि इत्मीनान से डाक्टर, इंजीनियर या कोई सरकारी नौकरी वाला हाकिम ढूंढेंगे अपनी लाडली के लिए। लड़का तो मनचाहा मिल गया, लेकिन दो दर्जन से ज्यादा आबादी वाला संयुक्त परिवार था लड़के का। बाबा डरते थे, नए जमाने की पढ़ी लिखी अल्हड़ बिटिया बड़ी जिम्मेदारियाँ कैसे संभालेगी? यहां जिसके ठहाके से हवेली गूंज जाती है वो पच्चीस लोगों वाले चार कमरे के घर में खुल के हँस कैसे पाएगी ? देर कर नहीं सकते थे, पुतुल भी तेईस की हो चुकी थी। और पुतुल ब्याह कर नगर की हवेली से गाँव के चार कमरे के कच्चे-पक्के मकान में आ गई। पर जितना ही सब डर रहे थे, पुतुल उतनी ही जल्दी अपने ससुराल में व्यवस्थित हो गई। मुश्किलें थीं लेकिन उसने उन्हें स्वीकार लिया था। दो साल में ही पुतुल जमाई बाबू के साथ उनकी पोस्टिंग वाली जगह चली गई। छह साल बाद उनकी पोस्टिंग राजधानी हुई, और बच्चों की पढ़ाई भी शुरू हो गई, तबसे पुतुल वहीं बस गई। जमाई बाबू का स्थानांतरण भी हुआ, मगर पुतुल बच्चों के साथ वहीं टिकी रही।  
इस बीच, जमाई बाबू से दस वर्ष बड़े भाई का असमय निधन हो गया। अड़तीस साल की बोदी और उनके दो बच्चे। एक तेरह साल की बेटी और दस साल का बेटा दोनों की पढ़ाई जरूरी थी। बाकी भाइयों की माली हालत इतनी अच्छी नहीं थी कि तीन लोगों  के निर्वहन के साथ दो बच्चों की स्तरीय पढ़ाई का खर्च उठा पाते। बड़े भाई की जिम्मेदारी को अनदेखा कैसे करते, जमाई बाबू दोनों बच्चों को साथ ले आए और अच्छे स्कूल में दाखिला भी करा दिया। बोदी गांव पर संयुक्त परिवार में ही रही उन्हें समय-समय पर थोड़ी आर्थिक सहायता उपलब्ध करा देते। राजधानी में किराए का मकान, दो कमरों का, चार बच्चे संग जमाई बाबू और दीदी। जमाई बाबू की आमदनी यूं तो अच्छी थी लेकिन इस व्यवस्था के लिए थोड़ी कम मालूम पड़ती थी। चार बच्चों की महंगी पढ़ाई , घर खर्च के साथ एक नई जिम्मेदारी, रिश्तेदारी ये सब की जिम्मेदारी पुतुल की थी। जमाई बाबू जानते थे तो कमाना और जिम्मेदारियों का हिसाब लेना। एक भी जिम्मेदारी में कोई कोताही दिखती नहीं कि पुतुल पर गर्मी उतर जाती।
पति के आकस्मिक निधन से बोदी सदमे में थी, हमेशा असुरक्षित महसूस करती, शरुआती तीन साल बीमार ही रही। उनका इलाज, उनकी दवाई, बच्चों की स्तरीय पढ़ाई और पढ़ाई के बाद बेटी की शादी,सबकी जिम्मेदारी जमाई बाबू ने उठा ली थी। बल्कि महत्तर भार तो पुतुल ने ही उठाया, जमाई बाबू तो जैसे पहले कमाते थे आज भी  वही कर रहे थे। काम नेकी का था, इसलिए मुश्किलों के बाद भी पुतुल ने कभी मना नहीं किया। माँ के हृदय ने नेह छलकाने में कभी एक क्षण जो थोड़ा पार्थक्य किया हो, चारों बच्चों की परवरिश में पुतुल ने कभी विभेद नहीं किया। किंतु अपनी गृहस्थी में बोदी की उपस्थिति उसे व्यथित कर जाती। 

जमाई बाबू की आमद बढ़ी, पुतुल ने तीन कमरों का एक फ्लैट ले लिया, गाड़ी ली। बच्चे चूंकि पुतुल के साथ थे तो बोदी भी बीच बीच में महीने दो महीने वहीं आ जाती। यूं तो बोदी जमाई बाबू से आठ साल बड़ी थी, पर पत्नी मन को कैसे समझाए। स्त्री सब समर्पित कर देगी, सब बांट लेगी लेकिन स्वामी और उसका स्वामित्व नहीं बांट सकती । सौत की सोच से तिलमिला जाने वाली अर्द्धांगिनी सुहाग पर परस्त्री की परछाई  कभी नहीं सह सकती। वह परस्त्री कोई हो, किसी भी उम्र की हो,कोई तर्क कोई दलील काम नहींआती। बच्चे बड़े हो गए थे और जमाई बाबू समय दे नहीं पाते थे तो पुतुल को ही उनके लिए नियंत्रक अभिभावक होना पड़ा। बच्चों की पढ़ाई, अनुशासन, सही गलत का निर्णय, उन पर नियंत्रण, सब उसके ही हिस्से आ गया। पिता की अनुपस्थिति में हो या पिता के पास समय की कमी हो, रोज की दिनचर्या में उनकी भूमिका माँ को ही निभानी पड़ती है।
और इस भूमिका में माँ, माँ कहाँ रह पाती है। पुतुल पूरे दिन तनी-खिंची रहती।घर ही नहीं बाहर भी उसका चिड़चिड़ापन दिख जाता। सफाई वाला, दूध वाला, काम वाली बाई, वॉचमैन सबके सामने उसकी पहचान कड़ी  मैडम की ही थी। कभी उसका मन होता तो भी अपने बच्चों के आगे बहुत नरम नहीं हो पाती। और बच्चे ऐसे में बोदी से अपनी फरमाइशें पूरी करवाते। बोदी भी बड़े चाव से उनकी पसंद की चीजें बनाती और प्यार से उन्हें खिलाती। बच्चे उनसे डरते नहीं थे तो अपनी सब बात साझा करते। और  जब पुतुल बच्चों को डाँटती तो बच्चे अपनी बड़ी माँ को ही ढाल बनाते।
माँ के हृदय ने नेह छलकाने में कभी एक क्षण जो थोड़ा पार्थक्य किया हो, चारों बच्चों की परवरिश में पुतुल ने कभी विभेद नहीं किया। किंतु अपनी गृहस्थी में बोदी की उपस्थिति उसे व्यथित कर जाती।

(Read in caption.. 3rd story ) पुतुल, छरहरे गठन की सुंदर, तेज तर्रार युवती। घर-बाहर सब अकेले ही संभालती। बड़े सरकारी अधिकारी थे जमाई बाबू। उन्हें नौकरी से फुर्सत कहाँ होती। खूब कमाते और लाकर रख देते पुतुल के सामने। पुतुल बड़ी सूझबूझ से खर्च करती, बचाती। ऐसे भागती- दौड़ती , जैसे गृहस्थी नहीं, सारा संसार वही चला रही हो। वैसे संसार ही बसा रखा था उसने। सुबह चार बजे उठने के साथ उसका ढाबा शुरू हो जाता, बच्चों की स्कूल का टिफिन, सुबह का नाश्ता, घर पर रुके मेहमानों का नाश्ता खाना और सब निपटा कर धोबी का पाट खोल कर बैठती। नहा के पूजा पर बैठती, पति- पुत्र और ना जाने किन- किन चीजों के मंगल हेतु एक से डेढ़ घंटे पाठ करती। पूजा से उठते ही भागती, बेटी को बस स्टॉप से लेकर वापस आती फिर दो निवाला उस के गले से उतरता। राजधानी में रहने की सुविधा है तो उसकी कीमत भी है। जमाई बाबू राजधानी से दूर पदस्थापित थे, बच्चों की अच्छी शिक्षा हेतु  पुतुल एक बार राजधानी में जमी तो हिली नहीं। नया घर, नयी गाड़ी, रोज की रिश्तेदारी, बड़े शिक्षण संस्थान में बच्चों की पढ़ाई, सारी जिम्मेदारी उसने बखूबी संभाली। आने-जाने और ठहरने वाले रिश्तेदारों की कमी नहीं थी, किसीकी परीक्षा, किसीका इलाज अब राजधानी में रहो तो रिश्तेदारी बढ़ ही जाती है। सबके खाने-पीने, सोने का इंतजाम करना, और सप्ताह के अंत में पति का इंतजार करना, कभी चैन की सांस लेते किसीने नहीं देखा। 

पुतुल अपने मायके की दुलारी चंचल गुड़िया थी। इसलिए प्यार से नाम भी पुतुल (गुड़िया) रखा था। बाबा ने बड़े शौक से कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में बीए ऑनर्स कराया। बाकी बेटियों की शादी कम उम्र में व्यापारी घरों में की थी। पुतुल अंतिम थी तो सोचा कि इत्मीनान से डाक्टर, इंजीनियर या कोई सरकारी नौकरी वाला हाकिम ढूंढेंगे अपनी लाडली के लिए। लड़का तो मनचाहा मिल गया, लेकिन दो दर्जन से ज्यादा आबादी वाला संयुक्त परिवार था लड़के का। बाबा डरते थे, नए जमाने की पढ़ी लिखी अल्हड़ बिटिया बड़ी जिम्मेदारियाँ कैसे संभालेगी? यहां जिसके ठहाके से हवेली गूंज जाती है वो पच्चीस लोगों वाले चार कमरे के घर में खुल के हँस कैसे पाएगी ? देर कर नहीं सकते थे, पुतुल भी तेईस की हो चुकी थी। और पुतुल ब्याह कर नगर की हवेली से गाँव के चार कमरे के कच्चे-पक्के मकान में आ गई। पर जितना ही सब डर रहे थे, पुतुल उतनी ही जल्दी अपने ससुराल में व्यवस्थित हो गई। मुश्किलें थीं लेकिन उसने उन्हें स्वीकार लिया था। दो साल में ही पुतुल जमाई बाबू के साथ उनकी पोस्टिंग वाली जगह चली गई। छह साल बाद उनकी पोस्टिंग राजधानी हुई, और बच्चों की पढ़ाई भी शुरू हो गई, तबसे पुतुल वहीं बस गई। जमाई बाबू का स्थानांतरण भी हुआ, मगर पुतुल बच्चों के साथ वहीं टिकी रही।  
इस बीच, जमाई बाबू से दस वर्ष बड़े भाई का असमय निधन हो गया। अड़तीस साल की बोदी और उनके दो बच्चे। एक तेरह साल की बेटी और दस साल का बेटा दोनों की पढ़ाई जरूरी थी। बाकी भाइयों की माली हालत इतनी अच्छी नहीं थी कि तीन लोगों  के निर्वहन के साथ दो बच्चों की स्तरीय पढ़ाई का खर्च उठा पाते। बड़े भाई की जिम्मेदारी को अनदेखा कैसे करते, जमाई बाबू दोनों बच्चों को साथ ले आए और अच्छे स्कूल में दाखिला भी करा दिया। बोदी गांव पर संयुक्त परिवार में ही रही उन्हें समय-समय पर थोड़ी आर्थिक सहायता उपलब्ध करा देते। राजधानी में किराए का मकान, दो कमरों का, चार बच्चे संग जमाई बाबू और दीदी। जमाई बाबू की आमदनी यूं तो अच्छी थी लेकिन इस व्यवस्था के लिए थोड़ी कम मालूम पड़ती थी। चार बच्चों की महंगी पढ़ाई , घर खर्च के साथ एक नई जिम्मेदारी, रिश्तेदारी ये सब की जिम्मेदारी पुतुल की थी। जमाई बाबू जानते थे तो कमाना और जिम्मेदारियों का हिसाब लेना। एक भी जिम्मेदारी में कोई कोताही दिखती नहीं कि पुतुल पर गर्मी उतर जाती।
पति के आकस्मिक निधन से बोदी सदमे में थी, हमेशा असुरक्षित महसूस करती, शरुआती तीन साल बीमार ही रही। उनका इलाज, उनकी दवाई, बच्चों की स्तरीय पढ़ाई और पढ़ाई के बाद बेटी की शादी,सबकी जिम्मेदारी जमाई बाबू ने उठा ली थी। बल्कि महत्तर भार तो पुतुल ने ही उठाया, जमाई बाबू तो जैसे पहले कमाते थे आज भी  वही कर रहे थे। काम नेकी का था, इसलिए मुश्किलों के बाद भी पुतुल ने कभी मना नहीं किया। माँ के हृदय ने नेह छलकाने में कभी एक क्षण जो थोड़ा पार्थक्य किया हो, चारों बच्चों की परवरिश में पुतुल ने कभी विभेद नहीं किया। किंतु अपनी गृहस्थी में बोदी की उपस्थिति उसे व्यथित कर जाती। 

जमाई बाबू की आमद बढ़ी, पुतुल ने तीन कमरों का एक फ्लैट ले लिया, गाड़ी ली। बच्चे चूंकि पुतुल के साथ थे तो बोदी भी बीच बीच में महीने दो महीने वहीं आ जाती। यूं तो बोदी जमाई बाबू से आठ साल बड़ी थी, पर पत्नी मन को कैसे समझाए। स्त्री सब समर्पित कर देगी, सब बांट लेगी लेकिन स्वामी और उसका स्वामित्व नहीं बांट सकती । सौत की सोच से तिलमिला जाने वाली अर्द्धांगिनी सुहाग पर परस्त्री की परछाई  कभी नहीं सह सकती। वह परस्त्री कोई हो, किसी भी उम्र की हो,कोई तर्क कोई दलील काम नहींआती। बच्चे बड़े हो गए थे और जमाई बाबू समय दे नहीं पाते थे तो पुतुल को ही उनके लिए नियंत्रक अभिभावक होना पड़ा। बच्चों की पढ़ाई, अनुशासन, सही गलत का निर्णय, उन पर नियंत्रण, सब उसके ही हिस्से आ गया। पिता की अनुपस्थिति में हो या पिता के पास समय की कमी हो, रोज की दिनचर्या में उनकी भूमिका माँ को ही निभानी पड़ती है।
और इस भूमिका में माँ, माँ कहाँ रह पाती है। पुतुल पूरे दिन तनी-खिंची रहती।घर ही नहीं बाहर भी उसका चिड़चिड़ापन दिख जाता। सफाई वाला, दूध वाला, काम वाली बाई, वॉचमैन सबके सामने उसकी पहचान कड़ी  मैडम की ही थी। कभी उसका मन होता तो भी अपने बच्चों के आगे बहुत नरम नहीं हो पाती। और बच्चे ऐसे में बोदी से अपनी फरमाइशें पूरी करवाते। बोदी भी बड़े चाव से उनकी पसंद की चीजें बनाती और प्यार से उन्हें खिलाती। बच्चे उनसे डरते नहीं थे तो अपनी सब बात साझा करते। और  जब पुतुल बच्चों को डाँटती तो बच्चे अपनी बड़ी माँ को ही ढाल बनाते।

पुतुल, छरहरे गठन की सुंदर, तेज तर्रार युवती। घर-बाहर सब अकेले ही संभालती। बड़े सरकारी अधिकारी थे जमाई बाबू। उन्हें नौकरी से फुर्सत कहाँ होती। खूब कमाते और लाकर रख देते पुतुल के सामने। पुतुल बड़ी सूझबूझ से खर्च करती, बचाती। ऐसे भागती- दौड़ती , जैसे गृहस्थी नहीं, सारा संसार वही चला रही हो। वैसे संसार ही बसा रखा था उसने। सुबह चार बजे उठने के साथ उसका ढाबा शुरू हो जाता, बच्चों की स्कूल का टिफिन, सुबह का नाश्ता, घर पर रुके मेहमानों का नाश्ता खाना और सब निपटा कर धोबी का पाट खोल कर बैठती। नहा के पूजा पर बैठती, पति- पुत्र और ना जाने किन- किन चीजों के मंगल हेतु एक से डेढ़ घंटे पाठ करती। पूजा से उठते ही भागती, बेटी को बस स्टॉप से लेकर वापस आती फिर दो निवाला उस के गले से उतरता। राजधानी में रहने की सुविधा है तो उसकी कीमत भी है। जमाई बाबू राजधानी से दूर पदस्थापित थे, बच्चों की अच्छी शिक्षा हेतु पुतुल एक बार राजधानी में जमी तो हिली नहीं। नया घर, नयी गाड़ी, रोज की रिश्तेदारी, बड़े शिक्षण संस्थान में बच्चों की पढ़ाई, सारी जिम्मेदारी उसने बखूबी संभाली। आने-जाने और ठहरने वाले रिश्तेदारों की कमी नहीं थी, किसीकी परीक्षा, किसीका इलाज अब राजधानी में रहो तो रिश्तेदारी बढ़ ही जाती है। सबके खाने-पीने, सोने का इंतजाम करना, और सप्ताह के अंत में पति का इंतजार करना, कभी चैन की सांस लेते किसीने नहीं देखा। पुतुल अपने मायके की दुलारी चंचल गुड़िया थी। इसलिए प्यार से नाम भी पुतुल (गुड़िया) रखा था। बाबा ने बड़े शौक से कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में बीए ऑनर्स कराया। बाकी बेटियों की शादी कम उम्र में व्यापारी घरों में की थी। पुतुल अंतिम थी तो सोचा कि इत्मीनान से डाक्टर, इंजीनियर या कोई सरकारी नौकरी वाला हाकिम ढूंढेंगे अपनी लाडली के लिए। लड़का तो मनचाहा मिल गया, लेकिन दो दर्जन से ज्यादा आबादी वाला संयुक्त परिवार था लड़के का। बाबा डरते थे, नए जमाने की पढ़ी लिखी अल्हड़ बिटिया बड़ी जिम्मेदारियाँ कैसे संभालेगी? यहां जिसके ठहाके से हवेली गूंज जाती है वो पच्चीस लोगों वाले चार कमरे के घर में खुल के हँस कैसे पाएगी ? देर कर नहीं सकते थे, पुतुल भी तेईस की हो चुकी थी। और पुतुल ब्याह कर नगर की हवेली से गाँव के चार कमरे के कच्चे-पक्के मकान में आ गई। पर जितना ही सब डर रहे थे, पुतुल उतनी ही जल्दी अपने ससुराल में व्यवस्थित हो गई। मुश्किलें थीं लेकिन उसने उन्हें स्वीकार लिया था। दो साल में ही पुतुल जमाई बाबू के साथ उनकी पोस्टिंग वाली जगह चली गई। छह साल बाद उनकी पोस्टिंग राजधानी हुई, और बच्चों की पढ़ाई भी शुरू हो गई, तबसे पुतुल वहीं बस गई। जमाई बाबू का स्थानांतरण भी हुआ, मगर पुतुल बच्चों के साथ वहीं टिकी रही। इस बीच, जमाई बाबू से दस वर्ष बड़े भाई का असमय निधन हो गया। अड़तीस साल की बोदी और उनके दो बच्चे। एक तेरह साल की बेटी और दस साल का बेटा दोनों की पढ़ाई जरूरी थी। बाकी भाइयों की माली हालत इतनी अच्छी नहीं थी कि तीन लोगों के निर्वहन के साथ दो बच्चों की स्तरीय पढ़ाई का खर्च उठा पाते। बड़े भाई की जिम्मेदारी को अनदेखा कैसे करते, जमाई बाबू दोनों बच्चों को साथ ले आए और अच्छे स्कूल में दाखिला भी करा दिया। बोदी गांव पर संयुक्त परिवार में ही रही उन्हें समय-समय पर थोड़ी आर्थिक सहायता उपलब्ध करा देते। राजधानी में किराए का मकान, दो कमरों का, चार बच्चे संग जमाई बाबू और दीदी। जमाई बाबू की आमदनी यूं तो अच्छी थी लेकिन इस व्यवस्था के लिए थोड़ी कम मालूम पड़ती थी। चार बच्चों की महंगी पढ़ाई , घर खर्च के साथ एक नई जिम्मेदारी, रिश्तेदारी ये सब की जिम्मेदारी पुतुल की थी। जमाई बाबू जानते थे तो कमाना और जिम्मेदारियों का हिसाब लेना। एक भी जिम्मेदारी में कोई कोताही दिखती नहीं कि पुतुल पर गर्मी उतर जाती। पति के आकस्मिक निधन से बोदी सदमे में थी, हमेशा असुरक्षित महसूस करती, शरुआती तीन साल बीमार ही रही। उनका इलाज, उनकी दवाई, बच्चों की स्तरीय पढ़ाई और पढ़ाई के बाद बेटी की शादी,सबकी जिम्मेदारी जमाई बाबू ने उठा ली थी। बल्कि महत्तर भार तो पुतुल ने ही उठाया, जमाई बाबू तो जैसे पहले कमाते थे आज भी वही कर रहे थे। काम नेकी का था, इसलिए मुश्किलों के बाद भी पुतुल ने कभी मना नहीं किया। माँ के हृदय ने नेह छलकाने में कभी एक क्षण जो थोड़ा पार्थक्य किया हो, चारों बच्चों की परवरिश में पुतुल ने कभी विभेद नहीं किया। किंतु अपनी गृहस्थी में बोदी की उपस्थिति उसे व्यथित कर जाती। जमाई बाबू की आमद बढ़ी, पुतुल ने तीन कमरों का एक फ्लैट ले लिया, गाड़ी ली। बच्चे चूंकि पुतुल के साथ थे तो बोदी भी बीच बीच में महीने दो महीने वहीं आ जाती। यूं तो बोदी जमाई बाबू से आठ साल बड़ी थी, पर पत्नी मन को कैसे समझाए। स्त्री सब समर्पित कर देगी, सब बांट लेगी लेकिन स्वामी और उसका स्वामित्व नहीं बांट सकती । सौत की सोच से तिलमिला जाने वाली अर्द्धांगिनी सुहाग पर परस्त्री की परछाई कभी नहीं सह सकती। वह परस्त्री कोई हो, किसी भी उम्र की हो,कोई तर्क कोई दलील काम नहींआती। बच्चे बड़े हो गए थे और जमाई बाबू समय दे नहीं पाते थे तो पुतुल को ही उनके लिए नियंत्रक अभिभावक होना पड़ा। बच्चों की पढ़ाई, अनुशासन, सही गलत का निर्णय, उन पर नियंत्रण, सब उसके ही हिस्से आ गया। पिता की अनुपस्थिति में हो या पिता के पास समय की कमी हो, रोज की दिनचर्या में उनकी भूमिका माँ को ही निभानी पड़ती है। और इस भूमिका में माँ, माँ कहाँ रह पाती है। पुतुल पूरे दिन तनी-खिंची रहती।घर ही नहीं बाहर भी उसका चिड़चिड़ापन दिख जाता। सफाई वाला, दूध वाला, काम वाली बाई, वॉचमैन सबके सामने उसकी पहचान कड़ी मैडम की ही थी। कभी उसका मन होता तो भी अपने बच्चों के आगे बहुत नरम नहीं हो पाती। और बच्चे ऐसे में बोदी से अपनी फरमाइशें पूरी करवाते। बोदी भी बड़े चाव से उनकी पसंद की चीजें बनाती और प्यार से उन्हें खिलाती। बच्चे उनसे डरते नहीं थे तो अपनी सब बात साझा करते। और जब पुतुल बच्चों को डाँटती तो बच्चे अपनी बड़ी माँ को ही ढाल बनाते। #Woman #cancer