हवस ने मुझ से पूछा था तुम्हारा क्या इरादा है बदन कार-ए-मोहब्बत में बराए इस्तिफ़ादा है कभी पहना नहीं उस ने मिरे अश्कों का पैराहन उदासी मेरी आँखों में अज़ल से बे-लिबादा है भड़क कर शोला-ए-वहशत लहू में बुझ गया होगा ज़रा सी आग थी लेकिन धुआँ कितना ज़ियादा है अगर तुम ग़ौर से देखो रुख़-ए-महताब कम पड़ जाए फ़लक पर इक सितारे की जबीं इतनी कुशादा है मुझे मस्कन समझते हैं अजब आसेब हैं ग़म के मैं इक दो से निमट भी लूँ ये पूरा ख़ानवादा है उसे धंदे से मतलब है वो दीमक बेचने वाला उसे वो ख़ाक समझेगा ये ख़्वाबों का बुरादा है हम उस से चाह कर भी बच नहीं सकते किसी सूरत निभाना पड़ता है इस को मोहब्बत एक वा'दा है मुझे शतरंज के ख़ानों में चलना तू सिखाएगा मैं फ़र्ज़ी बन चुका कब का तू अब तक इक पियादा है न-जाने कातिब-ए-तक़दीर ने क्या लिख दिया उस पर मिरी तक़दीर का सफ़हा न सीधा है न सादा है मैं इस हालत में 'ज़ेब' आख़िर कहाँ चलते हुए जाऊँ न मुझ में हौसला बाक़ी न मंज़िल है न जादा है ©पूर्वार्थ #हवस