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हरे पत्ते तबस्सुम के ठिकाने अब नहीं उल्फ़त के, मुहब

हरे पत्ते तबस्सुम के ठिकाने अब नहीं
उल्फ़त के, मुहब्बत के ज़माने अब नहीं, 
एक दौर था कि ख़्वाबों में मुलाक़ातें भी मुमकिन थीं
बात और है मिलने -मिलाने के बहाने अब नहीं।

©Ravi Sharma
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