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राहें भी हो जाती है अलग हम राही को क्या कहें कभी-क

राहें भी हो जाती है अलग हम राही को क्या कहें
कभी-कभी जो छुट जाता है साथ खुद राह से
तो हम हमराही को क्या कहें, सफर तो गुज़रेगा
युंहीं वक्त के साथ हम वक्त को क्या कहें,जब
राहें ही है टेढ़ी, है जो कांटे भी कई तो हम 
बदलते मौसम को भी क्या कहें, मंज़िले है
दुर अभी भी बहोत तो ऐसे में किस्मतों को भी
क्या दोष दें, दो पल का जो चैन मिले तो उस
थकान को भी क्या कहें हम जो रह गए हैं अकेले
तो हम अकेलेपन को क्या कहें, जो कभी छुटेगा
ये ज़माना तो हम इन राहों को क्या कहें,बस युँही
चलते-रुकते रहना है जीवन में हम इस ज़िंदगी को क्या 
कहें?

©SAHIL KUMAR
  क्या कहें
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SAHIL KUMAR

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क्या कहें #कविता

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