रचना वाणी।। कला कहे कलाकार से, रचना भी रचनाकार से। भाव-रहित क्यूँ वाणी है, कर्म-क्षुब्ध क्यूँ पाणी है। संताप बयानी रही नहीं, विलाप कहानी रही नहीं। कलम बना दरबारी है, शब्द लगा आबकारी है। जयकारों की बात चली, अंधियारों में रात टली। लक्ष्य कहाँ अब लक्षित है, दया धर्म सब भक्षित है। सत्य दोशाला ओढ़े बैठा, है ज्ञान कमर तोड़े बैठा। हुंकार नहीं अब शब्दों में, स्पंदन भी नहीं है नब्जों में। थी विद्रोही कलम कभी, बन बैठी है वहम अभी। सत्य देख मन ये दंग हुआ, पल में अहम ये भंग हुआ। सीने पे कलम ले कागज़ बोली, लिखता है तू किस बावत बोली। अविरल जो पन्ने रंगता है, ये ज्ञान बता किस ढंग का है। विरोध-स्वर अब वंदन है, भुजंगी विषधरा ये चन्दन है। कहीं नाव कहीं पतवार रही, पथभ्रमित दिशा ये चार रही। शब्द-संयोजित छन्दित है, पर भाव-रहित ये बन्दित है। मरहम बन घाव पे लगती थी, दुख में आंसू बन बहती थी। स्याही हुई सच मे काली, झूठ की है होती रखवाली। व्यग्र हुआ मन व्यथित हुआ, जीवन अंकों का गणित हुआ। मैं आज श्रृंखला तोडूंगा, पिघला हिम को मोडूंगा। मैं आज जतन इतना कर लूं, स्याही में भाव जरा भर लूं। रचना भी मुझपे गर्व करे, फिर सत्य ये अपने गर्भ धरे। ये काव्य कहे सत्कार से, वाणी की मृदुल झंकार से। धवल-रूप फिर धार के, भेदित हों तम संसार के। कला कहे कलाकार से, रचना भी रचनाकार से। ©रजनीश "स्वछंद" रचना वाणी।। कला कहे कलाकार से, रचना भी रचनाकार से। भाव-रहित क्यूँ वाणी है, कर्म-क्षुब्ध क्यूँ पाणी है। संताप बयानी रही नहीं, विलाप कहानी रही नहीं।