बुर्खे मे लिपटकर रहती है ,उसकी आंखे बहोत कुछ कहेती है । करीब से देखा नही अभी तक , मगर हाँ,कुछ सहमी सहमी सी रहती है ।। बात करने का दिल तो बहोत बार हुआ , शुरुआत केसे करु ? येह सवाल हुआ । दोस्ती का ही अर्ज करके हाथ आगे बढ़ाया, थोडा डर के ही सही पलकें जुकाये अपना लिया ।। सलाम वालिकुम से शुरु खुदा हाफिज़ से बात खतम कर देती थी , वो लबो से कम आँखो से ज्यादा कहती थी ।। ईद-ए-मिलाद पे सुरत उसकी देखी थी , नजर ना लगे इसलिए काजल लगाये गुम रही थी।। इश्क़ -ए-नूर का सिलसिला शुरु हो गया था , तसरिफ़ जब से रखी थी उसने सुकू मिल गया था।। मोहरम को निकाह तैह हो गया था , खुदा ने हमारा रिश्ता क़ुबूल कर दिया था ।। # इश्क़-ए-नूर