रातें.... अपना धर्म खो देता है जगी हुई आशिकों के संवाद के अंदर और.... बचीं हुई नींदों को थाम कर, उसी सनसनाहट में खुद को देखता हूं रोने के दो आंसू पकड़े संघर्ष के माटी में लगाता हूं ...! तब भी.... कुछ रह जाता है कल के आंखों में... आज के लिए.. उत्कर्ष की रातों के लिए......! और कानों को कहते हुए सुनता हूं कि... संघर्ष की मज़हब... एक उन्मादी रंगें ली हुई है...! बाद के , बचें हुए रातों में .. ये खोजना अभी तक रह ही गया है.. कि , करना क्या है.. इस जीवन में... सपनों की माटी लगीं हुई इस शरीर में...! एक ज्योत जगी हुई है खुद के आंतरिक मन में वह बोल रहा है... सच ये है कि.. संघर्ष करों उठाओ कलम... तब तक नहीं रखों जब तक.. कि..... कोई ओहदा न ले लो...! ©Dev Rishi #Music