चाहतें तो हमे नजरअंदाज कर देती है चाहतें हमारी होकर भी हमारी नही हो जैसे चाहने से भला कब क्या मिला है जिसे चाहते है वो चाहकर मिलेगा भी कैसे, उम्र गुजर रही इसी चाहत में की थम जाए वक्त एक शुकुन-ए-राहत पे लेकिन समय का पहिया भी कब रुका है। ज़मीं की ख्वाहिश पूरी करने बेवजह आसमान कब झुका है। मेरी चाहतें बादलों सी है मैं उँड़ू और उड़ता रहूँ गिरकर पानी की बूंदों की तरह कभी कभी जमीन से जुड़ता रहूँ अलग अलग रंग के तस्वीर सा बनकर हर किसी के चेहरे में खुशी लाऊँ कभी शेर कभी भालू तो कभी मोर बन जाउँ लोगो के गमो की चुरा संकूँ ऐसा चोर बन जाउँ। #sonuG