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माना प्रेम का तात्पर्य त्याग होता हैं फिर मन में य

माना प्रेम का तात्पर्य त्याग होता हैं
फिर मन में ये असहनीय पीड़ा क्यों उत्पन्न होता हैं

सब कहते हैं न ये प्रेम एक छलावा है
फिर उनसे बिछड़कर ये मिथ्या दूर क्यों होता है

प्रेम तो सदृश्य व्यर्थ स्वपन दिखाता है
फिर मन में उसकी ही छवि क्यों तैयार होता हैं

अनगिनत कहानियां सुनने को मिलती हैं प्रेम की
फिर ये कहानियां अधूरा अस्वीकार क्यों होता है

सहसा सहज प्रवृत्ति जान पड़ती हैं इस प्रेम की
फिर प्राणी जगत में ये असह्य बेरंग क्यों होता हैं

जीवन की नईं नईं शैली सिखाती हैं ये प्रेम
फिर संसार के लिए वो इतना असभ्य क्यों होता हैं

निंदा का पात्र बना हुआ है ये प्रेम आजकल
फिर न जाने क्यों हर किसी को ये प्रेम क्यों होता हैं

©Anjaly Khare
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pushpakhare1558

Anjaly Khare

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