प्रेम पूरित भावनाओं की लहर में रिक्तिका सी तुम हृदय में बन रही हो ! ये मन न जाने कब तेरा संतृप्त होगा स्वर्ण मृग की खोज अब भी कर रही हो !! दृष्टि के दोनों धरातल हैं मगर तुम बास्तविक को देख आभासी हुई हो ! दृश्य की उपलब्धता को आवरित कर मृग-मरीची ढूंढती तुम फिऱ रही हो !! कर जतन ले योग विद्या के सहारे मिल रहे हैं जैसे नद्य दौनों किनारे ! ब्रह्म-माया के भँवर में क्यों फसी हो जान कर भी कर्म बंधन कर रही हो !! सत्य का संधान जब तुम कर रही हो है उचित-अनुचित में अंतर जान लोगी !