बहुत दिन से रक़्स में ना डूबी, टूटी मेरी घुंगरू बहुत दिन से बारिश में ना भींगी टूटी मेरी घुंगरू कितनी महफ़िल इसने लूटी कितनो को भायी ये जब महफ़िल की रौनक़ थमी टूटी मेरी घुंगरू छम छम करके बजी थी पैरों में फिर सजी थी इश्क़ का धुन गुंजा ही नहीं फिर, टूटी मेरी घुंगरू एक श्रृंगार बिना सब फीका, फीकी हुई मेहंदी का रंग रुठ कर बैठी पायल जब टूटी मेरी घुंगरू बादल तो गरजा मगर सावन तो बरसा नहीं मोर पपीहा रुठ गए सब टूटी मेरी घुंगरू बड़ी नाज़ुक डोर में बंधी एक आँगन से दूजे आँगन चली उलझे सारे डोर फिर टूटी मेरी घुंघरू बजी थी इक रात फिर वो रात भी गुज़र गयी टूटी ना फिर चुड़िया, बस टूटी मेरी घुंगरू #परवीन ©purvarth #Life