जो दिखता है वो बिकता है।। जो दिखता है वो बिकता, सच कहाँ कब टिकता है। जीवन का एक एक पन्ना, बिखरा बिखरा मिलता है। ढोंग हुआ एक रोग बुरा, हर चेहरे पे जो जंचता है। सस्ता हुआ है लहु हमारा, हाथों में मेहंदी सा रचता है। कानून कहां और न्याय कहाँ, पलड़ा अब किसका भारी है। रहे सहायक सबल के सब ही, बस वही कहानी जारी है। भूखा रहा है भविष्य हमारा, ये अब भी मांटी फांक रहा। अहा, लाजवाब कुत्ता देखो, उस गाड़ी से है झांक रहा। लिए तराजू घुमा जग सारा, किस पलड़ा किसे बिठाऊँ में। बहुरूपिये इस समाज मे, किस किस का चेहरा दिखाऊँ मैं। बहन बेटी और मां भी रोती, कलियुग ने लिया अवतार है। गुंडों की बस्ती है ये दुनिया, यहां गुंडा ही बना सरदार है। किसे सुनाऊं क्या कह आऊं, है कौन सुने जो व्यथा हमारी। कहीं राम कृष्ण भी रोते होंगे, जग ने समझी न कथा हमारी। कृष्ण की बंसी बनी है सिटी, राम घर बैठा ऊंघ रहा है। खुली आंख सोया पौरुष है, कुत्ता मुंह को सूंघ रहा है। किस कचहरी पड़ेगी अर्ज़ी, करता सुनवाई कोई नहीं। सच की है पहचान सभी को, करता अगुआई कोई नहीं। कलम लिए लिखता जाउँ, पर दिखता नहीं है अंत कभी। स्वांग रचा कुटिया हैं बैठे, सुचिता के हैं जो संत सभी। मैं हारा नहीं, न मानूँ हार, मेरी कलम ये चलती जाएगी। एक आस लिए चलता मन मे, वो सुबह कभी तो आएगी। ©रजनीश "स्वछंद" जो दिखता है वो बिकता है।। जो दिखता है वो बिकता, सच कहाँ कब टिकता है। जीवन का एक एक पन्ना, बिखरा बिखरा मिलता है। ढोंग हुआ एक रोग बुरा,