व्यंग्य अज़ीब जंग चल रही है आजकल, किताब और फोन के बीच, दोनों होड़ाहोड में हैं, एक लम्बी दौड़ में है, दोनों एक दूसरे पर हावी हो रहें, एक को दिमाग सर्वस्व मानता है, तो दूसरे को ये अलबेला मन, सुबह उठते ही जो पहले हाथ मे आ जाए, समझ लो पूरा दिन ही उसी का, फिर चाहे कोई कितना ही जोर क्यू न जमा दे, इन दोनों के आगे किसी की नही चलती, एक मन तो कहता है कि, थोड़ा फोन चला ले, फिर किताब उठा ले, उसी क्षण दूसरी साइड से आवाज़ आती है, एक ही काम ठीक से कर, दोनों सिंगल सिंगल भी कुछ नही कर पा रहे, बस अपने ही अहम भाव मे जी रहें, इस चंचल मन को परेशान कर रहे, दुविधा में है हम, ना तो ढंग से फोन चला पा रहे, ना ही किताब के शब्दों को सही समझ पा रहे, एक को पकड़ते हैं तो दूसरा याद दिला देता है अपनी, कभी रिंगटोन से तो कभी मेसेज टोन से, किताबों के पन्ने भी , ये हिलोरें खाती हवाएं, ऊपर निचे उड़ा देती है, बस दोनों को साथ नहीं कर पा रहे, शायद इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि, अभी दिमाग पर कोई बोझ नहीं है, इसलिए ये मन तनिक हावी हो रहा, मन को भी क्या ही कहे, ये भी कोरोना काल मे खुद को बहला रहा, अब तो कोरोना भी जाने वाला है, पर आलसीपन छोड़कर जाने वाला है, जिन्हें कभी सोने का टाइम ही नही था, आज उनके पास उठने का टाइम नही है, इस फोन से छुटकारा तो नही ले सकते, भविष्य का सोच थोड़ी देर किताब ही उठा ली जाए, फोन को थोड़ा विश्राम दिया जाए.... ©अर्पिता #फोन ओर किताब