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एकाकीपन लिए विचरती, रहीं व्यथित मन की पीड़ाएं। पर

एकाकीपन लिए विचरती, रहीं व्यथित मन की पीड़ाएं।
पर विह्वल अधीर उर को हम,किंचित धीर नहीं दे पाए।

जीवन जीने की आतुरता,      आखिर कितनी तृष्णा सहती।
रह कर मौन भला आकांक्षा, कब तक अपने कष्ट न कहती।
तृप्ति हेतु मन मृग ने जाने कितने तप्त मरुस्थल मापे ।
लेकिन प्यासे अधरों को हम,   गंगा नीर नहीं दे पाये।
एकाकीपन---------------------------------------(१)

बंधी वेदना आलिंगन से,    क्यों न भला, प्रतिरोध करेगी। 
अखबारों के मुख पृष्ठों पर,कब कृषकों की व्यथा छपेगी।
संघर्षों को लाद पीठ पर  ,     न्यायालय के चक्कर काटे।
सिद्ध करे निर्दोष किसी को, वो तहरीर नहीं दे पाये। एकाकीपन----------------------------------------(२)

अनुनय-विनय भरा संवेदन,             मारा मारा घूम रहा है।
पाने को अधिकार यथोचित ,       रावण के पग चूम रहा है।
अमिय नाभि का दसकन्धर की,सोख सके,जो छूट धनुष से, 
हम अधर्म के संहारक को ,           पर वो तीर नहीं दे पाए। एकाकीपन----------------------------------------(३)

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रचनाकार- 
करन सिंह परिहार
ग्राम-पोस्ट- पिण्डारन
जिला- बांदा (उत्तर प्रदेश 
सम्पर्क - 9628463579

©करन सिंह परिहार
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