कविवार मन में आता है मेरे अक्सर यूँ ही काश तब वैसा न होता,काश अब ऐसा न होता तुम छू कर चले जाते मुझको मगर मन में अहसासों का ज्वार ऐसा उमड़ा न होता चाँद होता,ये तारे टिमटिमाते मगर रात तो हो जाती लेकिन ये फैला अँधेरा न होता ये सफर अकेले ही काटना था यदि तुम न मिलते और ये यादों का कारवां न होता यूँ भीतर समाने की जरूरत क्या थी वो थोड़ा बाहर भी होता तो मुझसे जुदा न होता कभी फुर्सत मिली तो बताऊंगा उन्हें अगर वो न होते तो ये फुर्सत का इरादा न होता! ©Ashish Kumar Verma कविवार