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कविवार मन में आता है मेरे अक्सर यूँ ही काश तब व

कविवार

मन में  आता है मेरे  अक्सर यूँ ही
काश तब वैसा न होता,काश अब ऐसा न होता

तुम छू कर चले जाते मुझको मगर
मन में अहसासों का ज्वार  ऐसा उमड़ा न होता

चाँद होता,ये तारे टिमटिमाते मगर
रात तो हो जाती लेकिन ये फैला अँधेरा न होता

ये सफर अकेले ही काटना था यदि
तुम न मिलते  और ये यादों का  कारवां न होता

यूँ भीतर समाने की जरूरत क्या थी
वो थोड़ा बाहर भी होता तो मुझसे जुदा न होता

कभी फुर्सत मिली तो बताऊंगा उन्हें
अगर वो न होते  तो ये फुर्सत का इरादा न होता!

©Ashish Kumar Verma कविवार
कविवार

मन में  आता है मेरे  अक्सर यूँ ही
काश तब वैसा न होता,काश अब ऐसा न होता

तुम छू कर चले जाते मुझको मगर
मन में अहसासों का ज्वार  ऐसा उमड़ा न होता

चाँद होता,ये तारे टिमटिमाते मगर
रात तो हो जाती लेकिन ये फैला अँधेरा न होता

ये सफर अकेले ही काटना था यदि
तुम न मिलते  और ये यादों का  कारवां न होता

यूँ भीतर समाने की जरूरत क्या थी
वो थोड़ा बाहर भी होता तो मुझसे जुदा न होता

कभी फुर्सत मिली तो बताऊंगा उन्हें
अगर वो न होते  तो ये फुर्सत का इरादा न होता!

©Ashish Kumar Verma कविवार

कविवार