नया शहर डूबती शामों के साथ और रंगीन लगने लगता है, बस ये शामें दो से चार हो गई तो, फिर शहर उतना ही बेरंग मैला लगने लगता है जितने कि, पिछली सर्द के कपड़े. सोच रहा हूँ शहर बदल दिया जाये, इस शहर में अब हो रौनक न रही अब वो शामें न रही, पँख पसारता तो हूँ रोज सुबह कहीं निकल जाने को, फिर वही दफ़्तरी और उसका सामान लेकर लौट आता हूँ, इसी ठिये में जहाँ फिर शाम को तैयारी होती है, अगली सुबह कहीं निकल चलने की. ये दफ़्तरी का जीवन भी भला कोई जीवन हुआ, चल 'ख़्वाब' निकल पड़ते है फिर किसी नए शहर की खाक छानने, एक राह बनाने जिसमें चले हों बस चन्द कदम, उन कदमों की आहट गर न धुली हो... #शहर