ढ़क जाती अच्छाई बुराई के नीचे, छुप जाती पहचान मुखौटे के पीछे, उम्मीदों पर फिरता पानी देखा तो, घबराकर हम पाँव खींच लेते पीछे, खोकर अपनी क्षमताएँ लाचार हुए, चलने को मजबूर सभी पीछे-पीछे, धरती चाँद सितारे नभ में हैं कितने, हैं गतिशील सदा अभ्यंतर के पीछे, दुनिया की दौलत में शांति नहीं भाई, फिर भी भाग रहे सारे धन के पीछे, प्यास हृदय की बुझा नहीं पाता कोई, बियाबान में भटक रहे मन के पीछे, अविनाशी बैठा अंतर्घट में 'गुंजन', माया भटकाती अज़ीम जन के पीछे, ---शशि भूषण मिश्र 'गुंजन' चेन्नई तमिलनाडु ©Shashi Bhushan Mishra #ढ़क जाती अच्छाई#