हाय रे इंसान।। इंसां धूल है फांक रहा, दानव मुख से झांक रहा। लिए हाथ धागा सुई, अपनी करनी है टांक रहा। क्या इसे दिखा क्या नहीं दिखा, खुले आँख ये अंधा है। देवत्व चाह पनपा दिल मे, पर, कर्म ही इसका गन्दा है। एक कथा उसकी भी सुन लो, जो प्राणी मात्र में श्रेष्ठ रहा। भरा कमंडल गंगाजल से, पापों से भरता पेट रहा। सब कहता सब सुनता है, व्याधी एक ही लगी रही। बना खिलौना यंत्र बना है, चाबी एक ही लगी रही। ज्ञान विवेक काले आखर हैं, लक्ष्मी लेती अंगड़ाई है। बड़ा है सबसे धूर्त कौन, बस इसकी ही लड़ाई है। आलू टमाटर कल तुलते थे, भाव की बोली लगती है। कभी होलिका जली अनल में, प्रह्लाद की होली जलती है। वरदान हुआ है वर से बड़ा, बस इक्षाशक्ति है शेष नहीं। सत्य पड़ा चीथड़ों में लिपटा, वसन है तन पर शेष नहीं। विधि कहाँ कानून कहाँ, बस नीब ही तोड़े जाते हैं। सांच जली है अपनी आंच, कर निर्जीव ही छोड़े जाते हैं। जो कलम कभी तलवार रही, अब दरबारों में सजती है। ये पांव की पायल बन बैठी, तबले के ताल पे बजती है। हुंकार का स्वर निस्तेज रहा, अब गला भी रुंधा जाता है। बना के बन्दर बापू का, मुंह आंख कान मूंदा जाता है। वो बीज अंकुरित हो भी कैसे, जो घुना हुआ और खँखर है। मिट्टी में सोंधी महक कहाँ, ये तो बस पत्थर कंकर है। आंख भरे जो कथा कहुँ, पर सच तो मुख से फूटेगा। एक दिन सूरज निकलेगा, और अहं बांध भी टूटेगा। ©रजनीश "स्वछंद" हाय रे इंसान।। इंसां धूल है फांक रहा, दानव मुख से झांक रहा। लिए हाथ धागा सुई, अपनी करनी है टांक रहा। क्या इसे दिखा क्या नहीं दिखा,