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ये शब्द नहीं है भावमुक्त, बंधन है स्याही का मुझसे।

ये शब्द नहीं है भावमुक्त,
बंधन है स्याही का मुझसे।

वो रिस - रिस कर बहती है,
मैं थाम उसे फिर लिखती हूँ।

हर वर्ण को मैंने पिरो दिया,
हर छंद द्वन्द का पाठ यहाँ।

जो समझ गया तो गंगा हूँ,
जो न समझो तो पानी हूँ।

उन्मुक्त कहाँ कोई लिख पाए,
हर कोई किसी से प्रेरित है।

कोई प्रेम रचे
कोई भाव लिखे अपने मन का।

ये सत्य लिखा मैंने मानस,
मेरे मन का उपजीत नहीं।

मैं "हर्षा "लिखती सतभाव यहाँ,
मुझमे कपट का दांव नहीं।

हर्षामिश्र

©harsha mishra
  rup

rup #कविता

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