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चंचल-चंचल नेत्र तुम्हारे,

चंचल-चंचल नेत्र तुम्हारे, 
                            सम्मोहन की हाला ।
रूप तुम्हारा प्रिये प्रकृति के, 
                          यौवन की मधुशाला ।

सांसों के झंकृत साजों से, 
                         जीवन भी गति पाते ।
प्रिये तुम्हारे भोले मन में, 
                         पत्थर भी घुल जाते ।

प्रेम ग्रंथ की अमर ऋचाएँ, 
                        रचते और सुनाते ।
अधर तुम्हारे जीवन को स्वर, 
                        दे देते मुस्काते ।

करुणा, दया क्षमा, के गहने, 
                       लाज तुम्हारा बाना ।
तुम जीवन की अमर शिखा हो, 
                       और जगत परवाना ।

©RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित'
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