चिंताएँ...⊙ संसार में…सभी प्रकार के…भावों का… सम्मान करना ही…प्राणी का…एकमात्र धर्म है… वहीं मनुष्य होने के नाते…हमारा परम धर्म है… इन भावनाओं को…सही मार्गदर्शित किया जाये… जिस माता एक शिशु को…शैशवावस्था में… समझाती है कि…कब क्या करना चाहिए… कब क्या नहीं…कौनसी बात को… कब मनवाना चाहिए…एवं कब नहीं… माता इसी प्रकार से…शिशु को उसके जीवन में… आनेवाली परिस्थितियों के लिए…तत्पर करती हैं… ठीक इसी प्रकार हम…जब बड़े और अनुभवी हो जाते हैं तो… हमें #प्रेम_नाम_के_शब्द और…इसके संसार का… अभिज्ञान प्राप्त होता है…जिस प्रकार हम प्रेम को… सर्वोपरि, सर्वोच्च एवं सर्वश्रेष्ठ…मानने लगते हैं… ठीक उसी प्रकार से…हमें चिंताओं को भी… सम्मानित करना चाहिए…वहीं सम्मान देना चाहिए… उस व्यक्ति को…जो आपकी चिंता करता है… क्यूँकि मेरे अनुसार…इस संसार में… जितना सम्मान प्रेम का है…उससे भी अधिक सम्मान… चिंताओं का होना चाहिए…क्यूँकि #आपकी_चिंता_करने_वाला_भी… किसी-ना-किसी स्थान पर…आपसे प्रेम ही करता है… परन्तु अंतर इतना होता है कि…प्रेम में इंसान सर्वदा… प्रसन्न होने का प्रयास करता है…जबकि चिंताओं में इंसान… अपने प्रिय को…स्वस्थ एवं प्रसन्न देखना चाहता है… कितना सरल सा भाव है यह…जहाँ जिसको ठीक से जाना भी ना जाये… उसके लिए भी…सर्वाधिक #चिंतित हो जाता है मनुष्य… मनुष्य का जन्म होना जितना कठिन है…उससे भी कठिन है… मनुष्य रहकर इन समस्त…चिंताओं का उपचार करना… ऐसा उपचार जिससे कि यह…मुड़कर आपके प्रिय के जीवन में… कदा भी उसके किवाड़ों पर आघात ना करें…क्यूँकि जिस भी समय… आपका प्रिय उदास होगा…ठीक उसी पल से… आपका जीवन भी… आपको एक उदासमय जीवन लगने लगेगा… #अभिशाप_के_भाँति लगने लगेगा ॥ #चिंताएँ ©पूर्वार्थ