दहशत का मैंने इक मंज़र देखा है। चलता फिरता देश में खंज़र देखा है।। धर्म पे हत्या करना कोई पाप नहीं। लोगों को ये कहते अक्सर देखा है।। प्यार मोहब्बत रिश्ते नातें बातें हैं। अपनों से जलते अपना घर देखा है।। ख़ुद को पाक बताने का क्या मकसद है। गुनाह से मैंने इंशा को तर देखा है।। टूट चुकी इंसानियत की हैं जंजीरे। इंशा को शैंता से भी बदतर देखा है।। मर गए लिंचिंग में और कश्मीर के घर। बहते हुए आंसू का समंदर देखा है।। घर की इज़्ज़त रुसवाई से बचाने को। पांव में बच्चों के बाप का सर देखा है।। अंधेरों से न घबराना कभी तुम "कमाल" रात के फौरन बाद सहर देखा है।। ✍️क़ाज़ी अज़मत कमाल