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जाने कहाँ गए वो दिन , जब मकान नही घर होते थे, दिल

 जाने कहाँ गए वो दिन , जब मकान नही घर होते थे,
दिलों में प्रेम था ,दूसरों की खुशी में सब ख़ुश होते थे,

परिवार के  सहारे , लोग  हर  मुकाम  को छू जाते थे,
पाकर सहारा एकदूजे का ,हर मंजिल को पा जाते थे,

जबसे  घर  की जगह , बंगले   और  फ्लैट  होने लगे,
लोग औरों के गम में हँसने ,और  ख़ुशी में रोने लगे हैं,

सारे रिश्तें और नाते  मानो ,सीने पर पहाड़ से हो गए,
एकल परिवार क्या हुए ,माँ बाप ,कँटीले झाड़ से हो गए ।।
-पूनम आत्रेय

©poonam atrey
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