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प्रत्युषा निर्दोष जीवन की लालसा लिए, मैं निकल, उद

प्रत्युषा

निर्दोष जीवन की लालसा लिए,
मैं निकल, उदघोष सभा मे आया हूँ।
अपनो का उपहास छोड़, कफन में,
सौहार्द का दीप जलाने आया हूँ।।

किस राही को निहारु मैले मन से?
खुद की कालिख छोड़कर आया हूँ।
निरुत्तर दौड़ता रहा जो मैं एक उम्र भर,
अब अपने व्यापक प्रश्न बनाने आया हूँ।।

कैसे भूलूंगा, उन अंकुरित सपनो को?
जिनके अविकसित भ्रूण गिराकर आया हूँ।
भटक गया था मैं पथिक पथ पग पर,
पहली प्रत्यक्ष प्रखर पगडंडी पर अब आया हूँ।।

एक दौर वो चला गया, क्षणिक समझ,
प्रतिकूल हुआ और विस्मृत करने आया हूँ।
इन ओझल होती पंक्तियों में,
कृष्ण वाच्य सी छाप छोड़ने आया हूँ।।

©kavinomics(Ravendra)
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