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कब उस रात की सुबह हुई।। मुर्गा भी बांग नहीं देता,

कब उस रात की सुबह हुई।।

मुर्गा भी बांग नहीं देता,
ना किरण पतों संग इठलाती है।
जहां दिन-रात में अंतर भी नहीं,
बस दुख की बदली मंडराती है।

कब फुर्सत उनको मिल पाता है,
निवाले की जुगत में बीते पहर तमाम।
हक की दुर्दशा भी देखी,
अधिकारों पर लगे हैं निरन्तर लगाम।

तन भी नँगा, हाथ भी नँगा,
आते जाते सबकी आत्मा भी नंगी पड़ी थी।
बाहर की गर्मी तो सह भी लेता,
भूख की गर्मी मुँहबाये महंगी बड़ी थी।

क्या जतन करे, वो क्या कर जाए,
ढके बदन या क्षुधातृप्ति को दूध ले आये।
बच्चे बिलखते सड़क पर, पत्नी बीमार पड़ी,
बच्चों को देखे, या जा पत्नी की सूध ले आये।

एक संसार मे बसते कई संसार,
एक मेरा, एक तेरा, एक उनका है।
तुमको हक मिला पेट से, मैं लड़ता,
पर उसका क्या, वो तो वहीं दुबका है।

उनकी तो बस एक लड़ाई है,
सांझ, सवेरे, दोपहर, चारों पहर।
दो जून की रोटी मिली कहां कब,
आधे पेट ही करता है वो बसर।

ना हमने सोचा, ना तुमने सोचा,
बस शब्दों में दर्द छुपाया है।
अब बस हुआ, उठ आगे बढ़ो,
सच है, जो उनका दर्द सुनाया है।

©रजनीश "स्वछंद" कब उस रात की सुबह हुई।।

मुर्गा भी बांग नहीं देता,
ना किरण पतों संग इठलाती है।
जहां दिन-रात में अंतर भी नहीं,
बस दुख की बदली मंडराती है।

कब फुर्सत उनको मिल पाता है,
कब उस रात की सुबह हुई।।

मुर्गा भी बांग नहीं देता,
ना किरण पतों संग इठलाती है।
जहां दिन-रात में अंतर भी नहीं,
बस दुख की बदली मंडराती है।

कब फुर्सत उनको मिल पाता है,
निवाले की जुगत में बीते पहर तमाम।
हक की दुर्दशा भी देखी,
अधिकारों पर लगे हैं निरन्तर लगाम।

तन भी नँगा, हाथ भी नँगा,
आते जाते सबकी आत्मा भी नंगी पड़ी थी।
बाहर की गर्मी तो सह भी लेता,
भूख की गर्मी मुँहबाये महंगी बड़ी थी।

क्या जतन करे, वो क्या कर जाए,
ढके बदन या क्षुधातृप्ति को दूध ले आये।
बच्चे बिलखते सड़क पर, पत्नी बीमार पड़ी,
बच्चों को देखे, या जा पत्नी की सूध ले आये।

एक संसार मे बसते कई संसार,
एक मेरा, एक तेरा, एक उनका है।
तुमको हक मिला पेट से, मैं लड़ता,
पर उसका क्या, वो तो वहीं दुबका है।

उनकी तो बस एक लड़ाई है,
सांझ, सवेरे, दोपहर, चारों पहर।
दो जून की रोटी मिली कहां कब,
आधे पेट ही करता है वो बसर।

ना हमने सोचा, ना तुमने सोचा,
बस शब्दों में दर्द छुपाया है।
अब बस हुआ, उठ आगे बढ़ो,
सच है, जो उनका दर्द सुनाया है।

©रजनीश "स्वछंद" कब उस रात की सुबह हुई।।

मुर्गा भी बांग नहीं देता,
ना किरण पतों संग इठलाती है।
जहां दिन-रात में अंतर भी नहीं,
बस दुख की बदली मंडराती है।

कब फुर्सत उनको मिल पाता है,