लीक-लीक गाड़ी चलै, लीकहि चले कपूत। यह तीनों उल्टे चलै, शायर, सिंह, सपूत। समाज में अक्सर परंपराओं के सम्मान की बात कही जाती है, समाज द्वारा बनाए गए कायदे-कानूनों के व्यवहार को श्रेष्ठ सामाजिक होने का आदर्श माना जाता है, किंतु जिस तरह समाज चलता आया है यदि वैसा ही सबकुछ होता रहे तो फिर समाज में और भेड़ों के झुंड में कोई अंतर नहीं रहेगा। भेड़ों की एक प्रवृत्ति होती है कि जिधर से आगे की भेङ निकल गई बस बाकी भेड़े सब उसी रास्ते से जाएगी और आगे वाली भेड़ भी पहले से बने रास्ते का ही अनुगमन करेगी। किंतु समाज में जो उत्कृष्ट प्रतिभाएं होती है, वह अनिवार्यत:पहले से ही चली आ रही लीक को तोड़ती है और अपनी नई लीक बनाती है। कोई भी शायर, कभी अपने पहले से लिखी गई कविता का अनुकरण नहीं करना चाहता, वह हमेशा 'अंदाजे बयां और' की तलाश में रहता है। क्या जंगल में शेर किसी रास्ते का अनुमान करता है, वह जिधर से गुजरता है वही उसका रास्ता होता है। इसी तरह को पुत्र अपने पिता पुरखों की संपत्ति, काम करने के तरीकों आदि को अंधा होकर भोगता है, पालन करता है किंतु एक होनहार पुत्र अपने पुरखों के मार्ग को प्रशस्त करता है, उनमें सुधार करता है, उन को आगे बढ़ाता है। यद्यपि लीक से हटने पर शुरू में समाज चौंकता है, आलोचना करता है, किंतु अंततः वह लीक से हटने के औचित्य को समझता है और फिर उसका अनुगमन भी करता है। संसार के इतिहास में ईसा, सुकरात, लिंकन, गांधी आदि के अनेक उज्जवल उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने अपने जीवन की आहुति इसलिए दी कि वह पारस्परिक लीक से हटकर समाज को एक बेहतर रास्ता दिखा रहे थे। ©S Talks with Shubham Kumar लीक- लीक गाड़ी चलै #Travel