कुछ अनसुलझे धागे हैं, जिनके मोह में तुमसे उलझी हुई हूँ, छोड़ो खुला ही रहने दो, मत सुलझाओ इन सिरों को, ये अहसास दिलाती है कि मैं किस कदर तुमसे जुड़ी हूँ, कैसे जाने दूँ नासमझ बचकानी जिद्दी शिकायतों को, जिनके बहाने,अबतक तुमपर हक जताये हुएअड़ी हूँ।.. Read in caption खुले रह गए हैं सिरे, कुछ गुमसुम-सी बातों के, उलझ जाते हैं बार-बार, ये उड़ते ख्यालातों से। बिन सुलझे भूली नहीं जाती, डर से खुल के कह नहीं पाती, टाल देती हूँ,जाने देती हूँ, पर उलझ ही जाती है